संघ एवं इसका क्षेत्र
राज्यों के पुनर्गठन संबंधी संसद की शक्ति
अनुच्छेद 3 संसद को अधिकृत करता है:
(अ) किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को या राज्यों के भागों को मिलाकर अथवा किसी राज्यक्षेत्र को किसी राज्य के भाग के साथ मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकेगी;
(ब) किसी राज्य के क्षेत्र को बढ़ा सकेगी।
(स) किसी राज्य का क्षेत्र घटा सकेगी।
(द) किसी राज्य की सीमाओं में परिवर्तन कर सकेगी।
(ड़) किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकेगी।
इसके अतिरिक्त संसद की नए राज्यों का निर्माण करने की शक्ति में किसी राज्य या संघ क्षेत्र के किसी भाग को किसी अन्य राज्य या संघ क्षेत्र में मिलाकर अथवा नए राज्य या संघ क्षेत्र में मिलाकर अथवा नए राज्य या संघ क्षेत्र का निर्माण सम्मिलित है।
राष्ट्रपति (या संसद) राज्य विधानमंडल के मत को मानने के लिए बाध्य नहीं है, और इसे स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है, भले ही उसका मत समय पर आ गया हो। संशोधन संबंधी अध्यादेश के संसद में आने पर हर बार राज्य के विधानमंडल के निए नया संदर्भ बनाना जरूरी नहीं। संघ क्षेत्र के मामले में संबंधित विधानमंडल के संदर्भ की कोई आवश्यकता नहीं, संसद जब उचित समझे स्वयं कदम उठा सकती है।
संविधान, संसद को यह अधिकार देता है कि वह नये राज्य बनाने, उसमें परिवर्तन करने नाम बदलने या सीमा में परिवर्तन के संबंध में बिना राज्यों की अनुमति के कदम उठा सकती है। दूसरे शब्दों में, संसद अपने अनुसार भारत के राजनीतिक मानचित्र का पुनर्निर्धारण कर सकती है। इस तरह संविधान द्वारा क्षेत्रीय एकता या अस्तित्व को गारंटी नहीं दी गई है, इस तरह भारत को सही कहा गया है, विभक्त राज्यों का अविभाज्य संघ।
संघ सरकार राज्य को समाप्त कर सकती है जबकी राज्य सरकार संघ को समाप्त नहीं कर सकती। दूसरी तरफ अमेरिका में क्षेत्रीय एकता या राज्यो के अस्तित्व को संविधान द्वारा गांरटी दी गई है। अमेरिकि संघीय सरकार नए राज्यों का निर्माण या उनकी सीमाओं में परिवर्तन बिना संबंधित राज्यों की अनुमति के नहीं कर सकती। इसलिए अमेरिका को ‘अविभाज्य राज्यों का अविभाज्य संघ’ कहा गया है।
संविधान (अनुच्छेद 4) में स्वयं यह घोषित किया गया है कि नए राज्यों का प्रवेश या गठन (अनुच्छेद 2 के अंतर्गत), नये राज्यों के निर्माण, सीमाओं, क्षेत्रों और नामों में परिवर्तन (अनुच्छेद 3 के अंतर्गत) को संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन नहीं माना जाएगा। अर्थात इस तरह का कानून एक सामान्य बहुमत और साधारण विधायी प्रक्रिया के जरिए पारित किया जा सकता है।
केंद्रशासित प्रदेशों एवं राज्यों का उद्भव
देशी रियासतों का एकीकरण
आजादी के समय भारत में राजनीतिक इकाईयों की दो श्रेणीयां थीं- ब्रिटिश प्रांत (ब्रिटिश सरकार के शासन के अधीन) और देशी रियासते (राजा के शासन के अधीन लेकिन ब्रिटिश राजशाही से संबंद्ध)। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम (1947) के अंतर्गत दो स्वतंत्र एवं पृथक प्रभूत्व वाले देश भारत और पाकिस्तान का निर्माण किया गया और देशी रियासतों को तीन विकल्प दिए गए- भारत में शामिल हो, पाकिस्तान में शामिल हों स्वतंत्र रहे। 552 देशी रियासतें, भारत की भौगोलिक सीमा में थीं।
549 भारत में शामिल हो गई और बची हुयी तीन रियासतों (हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर) ने भारत में शामिल होने से इंकार कर दिया। यद्यपि कुछ समय बाद इन्हें भी भारत में मिला लिया गया- हैदराबाद को पुलिस कार्यवाही के द्वारा, जूनागढ़ को जनमत के द्वारा एवं कश्मीर को विलय पत्र द्वारा भारत में शामिल कर लिया गया।
धर आयोग और जेवीपी समिति
देशी रियासतों का शेष भारत में एकीकरण विशुद्ध रूप से अस्थायी व्यवस्था थी। इस देस के विभिन्न भागों, विशेष रूप से दक्षिण से मांग उठने लगी कि राज्यों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन हो। जून, 1948 में भारत सरकार ने एस.के. धर की अध्यक्षता में भाषायी प्रांत आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने अपनी रिपोर्ट दिसंबर 1948 में पेश की। आयोग ने सिफारिश की कि राज्यो का पुनर्गठन भाषायी कारक की बजाय प्रशासनिक सुविधा के अनुसार होना चाहिए। इससे अत्यधिक असंतोष फैल गया, परिणामस्वरूप कांग्रेस द्वारा दिसंबर, 1948 में एक अन्य भाषायी प्रांत समिति का गठन किया गया। इसमें जवाहरलाल नेहरू, बल्लभभाई पटेल और पट्टाभिसीतारमैया शामिल थे, जिसे जेवीपी समिति के रूप में जाना गया। अपनी रिपोर्ट अप्रैल, 1949 में पेश की और इस बात को औपचारिक रूप से अस्वीकार किया कि राज्यों के पुनर्गठन का आधार भाषा होनी चाहिए।
हालांकि अक्टूबर, 1953 में भारत सरकार को भाषा के आधार पर पहले राज्य के गठन के लिए मजबूर होना पड़ा, जब मद्रास से तेलुगू भाषी क्षेत्रों को पृथक कर आंध्रप्रदेश का गठन किया गया। इसके लिए एक लंबा विरोध आंदोलन हुआ, जिसके अंतर्गत 56 दिनों की भूख हड़ताल के बाद एक कांग्रेसी कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामुलु का निधन हो गया।
फज़ल अली आयोग
आंध्र प्रदेश के निर्माण से अन्य क्षेत्रों से भी भाषा के आधार पर राज्य बनाने की मांग उठने लगी। इसके कारण भारत सरकार को (दिसंबर 1953 में) एक तीन सदस्यीय राज्य पुनर्गठन आयोग, फज़ल अली की अध्यक्षता में गठित करने के लिए विवश होना पड़ा। इसके अन्य दो सदस्य थे- के.एम. पणिक्कर और अच.एन. कुंजरू। इसने अपनी रिपोर्ट 1955 में पेश की और इस बात को व्यापक रूप से स्वीकार किया कि राज्यों के पुनर्गठन में भाषा को मुख्य आधार बनाया जाना चाहिये। लेकिन इसने ‘एक राज्य एक भाषा’ के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया। इसका मत था कि किसी भी राजनीतिक इकाई के पुनर्निर्धारण में भारत की एकता को प्रमुखता दी जानी चाहिए। समिति ने किसी राज्य पुनर्गठन योजना के लिए चार बड़े कारकों की पहचान की:
(अ) देश की एकता एवं सुरक्षा की अनुरक्षण एवं संरक्षण
(ब) भाषायी व सांस्कृतिक एकरूपता।
(स) वित्तीय, आर्थिक एवं प्रशासनिक तर्क।
(द) प्रत्येक राज्य एवं पूरे देश में लोगों के कल्याण की योजना और इसका संवर्धन।
आयोग ने सलाह दी कि मूल संविधान के अंतर्गत चार आयामी राज्यों के वर्गीकरण को समाप्त किया जाए और 16 राज्यों एवं 3 केंद्रीय प्रशासनिक क्षेत्रों का निर्माण किया जाए। भारत सरकार ने बहुत कम परिवर्तनों के साथ इन सिफारिशों को स्वीकार कर लिया। राज्य पुनर्गठन अधिनियम (1956) और 7वें संविधान संशोधन अधिनियम (1956) के द्वारा भाग क और भाग ख के बीच की दूरी को समाप्त कर दिया गया और भाग ग को खत्म कर दिया गया।