एनआईए को ऐसी शक्ति न दें कि बोलने से डर लगे
कुछ समय पहले की बात है, सिंगापुर में न्यायविद और जजों का वैश्विक सम्मेलन हो रहा था। इस देश के बहुत सम्मानित पूर्व जज भाषण दे रहे थे। उन्होंने कहा, ‘हमारे देश में पूरी तरह फ्रीडम ऑफ स्पीच (बोलने की आज़ादी) है’ सभागार में उस देश के तमाम लोगों ने ताली बजाई। जज थोड़ा रुके और अगला वाक्य कहा, ‘लेकिन फ्रीडम आफ्टर स्पीच (बोलने के बाद आज़ादी) की कोई गारंटी नहीं है’। ताली बजाने वाले सारे हाथों को मानो लकवा मार गया। संसद में गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून के कुछ नए सख्त प्रावधानों -व्यक्तिगत स्तर पर किसी को आतंकी घोषित कर संपत्ति जब्त करने का अधिकार राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को दिए जाने- पर विपक्ष की नाराजगी पर देश के गृहमंत्री अमित शाह ने व्यंग्य कसते हुए कहा, ‘अभी क्या, अब तो विचारधारा के नाम पर शहरी नक्सली भी नहीं बचेंगे’। आतंकी घोषित करने वाले प्रावधानों में से एक है- जो देश में आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला कार्य करेगा’। आतंकवाद के खिलाफ इस एजेंसी को ताकत देना एक बात है लेकिन यह फैसला कि किसी बुद्धिजीवी या विश्वविद्यालय के प्रोफेसर की किस तकरीर या लेख से कैसे नक्सलवाद को बढ़ावा मिलेगा, किसी सरकारी एजेंसी के भरोसे छोड़ दिया जाए तो देशभर में ताली बजाने वाले हाथों को लकवा तो मारेगा ही। यह विधेयक अगर कानून बन गया तो देश में फ्रीडम आफ्टर स्पीच संकट में आ जाएगा और तब एनआईए (सरकार) की नज़र मीडिया पर भी हो सकती है। एक उदार प्रजातंत्र वाले देश में इस तरह के अस्पष्ट कानून जो एजेंसियों को निर्बाध शक्ति दें, संविधान की भावना के अनुरूप तो नहीं ही हैं। यही कारण है कि बढ़ती ‘भीड़ न्याय’ (मॉब लिंचिंग) की प्रवृत्ति जाने-माने लोगों की चिंता बन गई है। एक ताज़ा डरावनी घटना उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के गांव की है। एक व्यक्ति रात में साइकिल से जा रहा था। एक गांव के पास कुत्तों ने उसे दौड़ाया। बचने के लिए साइकिल से गिरकर जब वह गांव में घुसा तो लोगों ने चोर समझकर उसे आग लगाकर मार दिया। जब हत्या के लिए सामूहिक रूप से हाथ उठे, पेट्रोल डाला और आग लगा दी तो पशु और आदमी में फर्क करने वाली बुद्धिमत्ता गायब थी। इस कानून के बाद खतरा उन सभी स्वच्छंद सोच वाले लोगों के लिए है, जो अच्छे काम पर तो ताली बजाते हैं, लेकिन सरकार गलत करे तो खुल कर बोलते हैं।
विशेष अदालतों का गठन
बाल यौन उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं से चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश देकर सही किया कि उन जिलों में विशेष अदालतों का गठन करके ऐसे मामलों का निस्तारण किया जाए जहां इस तरह के सौ से अधिक मामले सामने आ चुके हैं। कहना कठिन है कि ऐसे जिले कितने है। लेकिन इसे लेकर संदेह नहीं कि बालक-बालिकाओं से दुष्कर्म की घटनाएं तेजी से बढ़ रही है। इसे इस आंकड़े से अच्छे से समझा जा सकता है कि इसी वर्ष एक जनवरी से 30 जून तक देश भर में बच्चों से दुष्कर्म की 24 हजार से अधिक घटनाओं को एफआइआर के रूप में दर्ज किया जा चुका है।
चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी स्पष्ट किया है कि केंद्र सरकार के खर्च पर गठित होने वाली विशेष अदालतें साठ दिन के अंदर काम शुरू कर दें इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि ऐसा होगा, लेकिन उचित यह भी होगा कि यह सुनिश्चित किया जाए कि ये अदालतें फैसले देने में तत्परता का परिचय दें। यह अपेक्षा इसलिए, क्योंकि कई बार विशेष अदालतें भी धीमी गति से काम करती हुई दिखती है। नि:संदेह यह भी आवश्यक है कि निचली अदालतों के फैसलों की सुनवाई में देर न हो। इन मामलों का अंतिम स्तर पर जल्द निस्तारण करके ही यौन अपराधियों को कोई सही संदेश दिया जा सकता है।
कई राज्यों ने बाल दुष्कर्म के दोषियों के लिए मृत्यु दंड की सजा का प्रावधान कर रखा है। इसका उद्देश्य कठोर दंड के जरिये दुष्कर्मी तत्वों के मन में भय का संचार करना है। इसकी जरूरत केंद्र सरकार ने भी महसूस की और इसीलिए यौन उत्पीड़न से बच्चों को संरक्षण देने वाले अधिनियम अर्थात पोक्सो को संशोधित कर यह प्रावधान किया गया है कि बच्चों से दुष्कर्म के गंभीर मामलों में फांसी की भी सजा दी जा सकती है। इसके पहले दुष्कर्म रोधी कानून को भी संशोधित कर मौत की सजा का प्रावधान किया जा चुका है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि देश को दहलाने वाले निर्भया कांड के गुनहगारों को दी गई फांसी की सजा पर अमल अभी तक नहीं हो सका है।
कठोर कानूनों का महत्व तभी है जब उन पर अमल भी किया जाए। यह केवल सुप्रीम कोर्ट और केंद्र अथवा राज्यों सरकारों के लिए ही नहीं समाज के लिए भी गंभीर चिंता का विषय है कि बाल दुष्कर्म के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे है। कोशिश केवल इसकी ही नहीं होनी चाहिए कि बाल दुष्कर्म के दोषियों को जल्द सजा मिले, बल्कि इसकी भी होनी चाहिए कि ऐसे घृणित अपराध होने ही न पाएं।
श्रम प्रवास से वृद्धि
आंध्र प्रदेश विधानसभा ने गत बुधवार को एक ऐसे कानून पर मुहर लगाई जो राज्य के उद्योगों में तीन-चौथाई नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित करने का प्रावधान करता है। मुख्यमंत्री वाई एस जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों के दौरान इसे चुनावी मुद्दा बनाया था और यह कदम उसी वादे को पूरा करने की दिशा में उठाया गया है। आंध्र प्रदेश में कारोबार कर रही कंपनियों को तीन वर्षों के भीतर इस कानून का पालन करने के लिए कहा गया है। केवल दवा एवं पेट्रोलियम जैसे कुछ खास क्षेत्रों की कंपनियों को ही इससे छूट दी जाएगी और वह छूट भी मामला-दर-मामला तय होगी। आंध्र्र प्रदेश और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में अन्य राज्यों से रोजगार की तलाश में आने वाले लोगों की बढ़ती संख्या के चलते लंबे समय से टकराव की स्थिति बनती रही है और जगन मोहन सरकार का यह फैसला उसी का नतीजा है।
राज्यों में नेता अक्सर रोजगार का वादा पूरा करने के लिए निजी क्षेत्र पर स्थानीय लोगों को काम पर रखने का दबाव बनाते हैं। लेकिन ऐसे कानून से रोजगार की तलाश कर रहे लोगों के संतुष्ट हो जाने की संभावना नहीं होती है। दरअसल बदले हुए हालात में कंपनियां आंध्र प्रदेश में काम करने से पहले दो-बार सोचेंगी। वहीं पहले से मौजूद कंपनियों की श्रम लागत बढ़ जाएगी, काम पर रखे जा सकने लायक लोगों की संख्या कम हो जाएगी। फिर वे अधिक संतोषजनक कारोबारी माहौल वाली जगह जाने का रास्ता चुनने लगेंगी, चाहे वह जगह किसी अन्य राज्य में हो या किसी दूसरे देश में। पूंजी का पलायन हकीकत बन जाएगा। वह स्थिति रोजगार सृजन एवं वृद्धि की नहीं बल्कि गतिहीनता एवं शहरी अशांति को जन्म देगी।
आंध्र प्रदेश में लंबे समय से कारोबार के प्रति दोस्ताना रवैया रखने वाली सरकारें रही हैं लेकिन नए कानून से इस धारणा पर तगड़ी चोट पहुंचेगी। राज्य सरकार ने कहा है कि कुशल कामगारों की कमी को स्थानीय लोगों को काम पर नहीं रखने का बहाना नहीं बनाया जा सकता है और ऐसा होने पर कंपनियों को उन लोगों को खुद ही प्रशिक्षण देना होगा। इस तरह यह कानून कामगारों को कुशल बनाने का दायित्व सरकार से लेकर निजी क्षेत्र पर डाल देता है। इससे भी बुरी बात यह है कि इस कानून को अन्य राज्यों में भी लागू करने की आवाज जोर पकड़ सकती है। वैसे मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार की औद्योगिक नीति भी इससे खास अलग नहीं है जिसके मुताबिक सरकार की वित्तीय एवं अन्य मदद से स्थापित किसी भी कारखाने में 70 फीसदी नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित रखनी होंगी।
बुरी लेकिन लोकलुभावनी नीति जंगल में लगी आग की तरह फैल सकती है। इसकी काफी संभावना है कि प्रवासी श्रमिकों की बड़ी संख्या वाले महाराष्ट्र एवं कर्नाटक जैसे राज्य भी इस तरह का कोई कानून लाने के बारे में चर्चा शुरू कर दें। ऐसा होना भारतीय संविधान के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। इसके अलावा यह भारत की वृद्धि संभावनाओं पर भी गहरी चोट करेगा। आर्थिक वृद्धि के सिद्धांत में एक बुनियादी एवं स्पष्ट नियम है कि अकुशल श्रमिकों को शहरों का रुख करना चाहिए ताकि वे अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में योगदान दे सकें। अपनी क्षेत्रीय विषमताओं की वजह से भारत में यह प्रक्रिया स्वाभाविक तौर पर राज्यों के बीच भी घटनी चाहिए। ऐसे में श्रमिकों की आवाजाही पर पाबंदी लगने से भारत की वृद्धि संभावनाएं प्रभावित होंगी। चीन जैसे विशाल देशों ने इस आंतरिक प्रवास के चलते काफी अच्छा प्रदर्शन किया है। ऐसे कानून से भारत के तटीय एवं दक्षिणी राज्यों और उत्तरी राज्यों के बीच असंतोष भी बढ़ेगा। दरअसल तटीय एवं दक्षिणी राज्य विश्व अर्थव्यवस्था से अपना तालमेल बिठा चुके हैं जबकि उत्तरी राज्यों में बेरोजगार युवाओं की भरमार है और उनके पास रोजगार के लिए नजदीकी विकल्प भी नहीं हैं।
नख–दंत विहीन हुआ
सूचना का अधिकार कानून सरकार और बाहुबलियों पर लगाम लगाने में किस हद तक सफल रहा है, और किस हद तक उनकी आंखों में खटकता रहा है, इसका अंदाजा इसी तय से लगाया जा सकता है कि अब तक 80 सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। तय छिपा नहीं है कि इस कानून के तहत पूछे गए सवालों से विगत में अनेक बार अनेक शक्तिशाली लोगों को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा है
किसी देश में लोकतंत्र की सफलता का आकलन इस आधार पर किया जाता है, और किया भी जाना चाहिए कि वहां की सरकार ने किस हद तक अपने नागरिकों का सशक्तिकरण किया है। इस लिहाज से 2006 में बना सूचना का अधिकार कानून लोकतंत्र की गरिमा और प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला था। शासन-प्रशासन में पारदर्शिता कायम करने, भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने और अधिकारियों को जिम्मेदार बनाने के उद्देश्य से बनाया गया यह कानून हमारे हाथों में एक मजबूत और प्रभावी उपकरण था। लेकिन दुर्भाग्य कि अब उसमें संशोधन के जरिए मोदी सरकार हमारे उस सशक्त औजार को छीनने में जुट गई है।
मालूम हो कि सूचना का अधिकार हमें यों ही अचानक नहीं मिल गया था। न सरकार की भल मनसाहत या उदारता का परिणाम था। सच यह है कि इस कानून के लिए देश भर में आंदोलन किए गए थे। गहन जन संवाद कायम किया गया था। कहा जाए, तो सूचना का अधिकार कानून नागरिकों के संघर्ष का परिणाम था। अब मोदी सरकार संशोधन के जरिए उसे अप्रासंगिक बनाने पर आमादा दिख रही है। लोकतंत्र और संविधान के लिहाज से देखा जाए तो प्रस्तावित संशोधन न केवल उत्तरदायित्व, बल्कि संघवाद के विचार पर भी हमला है। बहरहाल, कोई यह न समझे कि सूचना के अधिकार को कुंद करने की पहले कोशिश नहीं हुई थी। सच तो यह है कि कानून बनने के तुरंत बाद से ही इसमें संशोधन करने की सरकारी कोशिशें होने लगी थीं, मगर अधिकार कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों की सतत निगहबानी के चलते सफल नहीं हो पाई थीं। आम रूप से यही आशा थी कि आगे इस कानून को और भी मजबूती मिलेगी, परंतु तब कहां किसी को पता था कि एक दिन कोई ऐसी भी सरकार आएगी, जो मजबूत करने के बदले कानून के ही पर कतरने लगेगी।
प्रस्तावित संशोधन विधेयक लोक सभा से पारित भी हो चुका है। दिलचस्प यह कि विधेयक पारित करने के पहले सरकार ने इस मुद्दे पर बहस कराने की जरूरत भी नहीं समझी, जबकि सूचना के अधिकार को कानूनी जामा पहनाने के पहले उस पर खूब बहस हुई थी। सरकार से बाहर के लोगों की राय भी ली गई थी। इतने महत्त्वपूर्ण कानून में बिना बहस-मुबाहिस के संशोधन के चलते सरकार की मंशा पर संदेह होना स्वाभाविक है। मोदी सरकार ने सूचना का अधिकार कानून के सेक्शन 13, 16 और 27 में संशोधन का प्रस्ताव किया है। मालूम हो कि ये सेक्शन केंद्रीय मुख्य सूचना आयुक्तों को चुनाव आयुक्तों और राज्य सूचना आयुक्तों को मुख्य सचिव की हैसियत प्रदान करते हैं, ताकि वे स्वतंत्र और प्रभावी ढंग से काम कर सकें। अब केंद्र सरकार इस संरचना को ही ध्वस्त करने में जुट गई है। परिणामस्वरूप केंद्र और राज्य सुचना आयुक्तों का कार्यकाल, वेतन-भत्ते और सेवा की अन्य शत्रे आदि तय करने का अधिकार केवल केंद्र सरकार के हाथों में होगा।
वैसे लोक सभा में विधेयक पेश करते हुए केंद्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह ने जोर देकर कहा कि सरकार का यह कदम बड़ा ही उदारतापूर्वक उठाया गया है, और सूचना का अधिकार काननू में कोई बुनियादी बदलाव नहीं होगा। हमें उनके बयान को उनकी मासूमियत नहीं समझना चाहिए क्योंकि सरकार की कार्यशैली से षड्यंत्र की बू आ रही है। सरकार की मंशा अच्छी है तो उसे गुप्त रूप विधेयक पेश करने की क्या जरूरत थी? क्या लोक सभा के पटल पर रखने के पहले विधेयक में प्रस्तावित संशोधनों पर बहस नहीं हो सकती थी? जाहिर है कि सरकार की मंशा में खोट है। उसने जिन संशोधनों का प्रस्ताव किया है, उससे सूचना के अधिकार कानून की आत्मा का ही कत्ल हो जाएगा। जब केंद्र सरकार सूचना आयुक्तों की सेवा शतरे, कार्यकाल और वेतन-भत्ते तय करने का अधिकार हासिल कर लेगी तो कहने की आवश्यकता नहीं कि सूचना आयोग की स्वायत्तता ही समाप्त हो जाएगी। वह भी सरकार के किसी अन्य विभाग की तरह ही काम करने के लिए अभिशप्त होगा। जो भी व्यक्ति सूचना आयुक्त बनेगा, उसे सरकार के रहमोकरम पर ही आश्रित रहना होगा।
आखिर, सरकार को संशोधन में इतनी जल्दी क्यों है? कुछ लोगों का मानना है कि इसके पीछे बड़ी वजह है कि सूचना के अधिकार ने सरकारी दस्तावेज के साथ शक्तिशाली चुनावी उम्मीदवारों के शपथ पत्र की प्रति जांच में सहायक बना और कई आयुक्तों ने उनके बारे में प्रतिकूल जानकारियों को सार्वजनिक किया। इसके चलते अनेक उम्मीदवारों को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा। इनकार नहीं किया सकता कि सूचना का अधिकार (आरटीआई) शक्ति और सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ सतत चुनौती बना हुआ है। भारत जैसे देश में, जहां कानून का शासन महज माखौल बनकर रह गया हो और भ्रष्टाचार के साथ-साथ शक्ति का लगातार दुरुपयोग होता हो, इस कानून ने खलल डाल दिया है। इसने सत्ता तक लोगों की पहुंच सुनिश्चित करने के साथ-साथ नीति निर्माण में भी उनके हस्तक्षेप के लिए जगह बनाई है। सूचना के अधिकार ने अधिकारियों की मनमानी, विशेषाधिकार और भ्रष्ट शासन के चेहरे से नकाब उतार फेंका है।
यह कानून सरकार और बाहुबलियों पर लगाम लगाने में किस हद तक सफल रहा है, और किस हद तक उनकी आंखों में खटकता रहा है, इसका अंदाजा इसी तय से लगाया जा सकता है कि अब तक 80 सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। हमें किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि सरकार सूचना अधिकार कानून में केवल कुछ छोटे-मोटे परिवर्तन करने की मंशा रखती है। तय छिपा नहीं है कि इस कानून के तहत पूछे गए सवालों से विगत में अनेक बार अनेक शक्तिशाली लोगों को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा है। सरकार के लिए यह उसकी आंखों में चुभता कांटा है, जिसे मोदी सरकार जल्द से जल्द निकाल फेंकना चाहती है। कहते हैं कि सतत निगरानी ही लोकतंत्र का मूल्य होती है। सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल सतत निगरानी के लिए ही तो हो रहा था, लेकिन मोदी सरकार को वह क्योंकर स्वीकार होगा? वे तो अपनी सरकार का एकछत्र साम्राज्य चाहते हैं, और यह कानून इसमें बड़ी बाधा है। प्रस्तावित संशोधन सरकार को अनियंत्रित, भ्रष्ट और दंभी ही बनाएगा। इसलिए देश के नागरिकों को संशोधन का विरोध करना चाहिए क्योंकि वही उनके हक में होगा।