पाबंदियों को आज़ादियों की दरकार और हमारा कानून
यह देश जिसने धार्मिक सद्भाव को अपने संविधान में जगह दी है, वहां महिलाओं की पुरुषों के साथ मस्जिदों में एंट्री से जुड़ी एक हिंदू की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया है कि यदि कोई मुसलमान इसकी मांग करेगा तो ही सुनवाई होगी। धर्म पर राजनीति करने का खास शगल रखने वाला हमारा देश आज़ादी के 72 सालों बाद भी यदि औरतों के लिए हक की मांग कर रहा है तो वह है मस्जिद-मंदिरों में जाने की। मस्जिद में जाने की याचिका लगाने वाले कोई और नहीं बल्कि केरल हिंदू महासभा के लोग हैं। वही केरल जहां सबरीमाला में महिलाओं के आने का विरोध हिंदू ही कर रहे थे। वैसे, देखा जाए तो अभी सबरीमाला का विवाद बस थमा ही है, सुलझा नहीं। मंदिर दोबारा खुलते ही विवादों की फाइल भी फिर खुल जाएगी। फिर कोई महिला मंदिर में घुसने की कोशिश करेगी। फिर कोई उसे रोकेगा। अफसोसजनक तो यह है कि जो महिला सबरीमाला में दर्शन कर पाई, अब उसे अपने परिवार से बेदखल कर दिया गया है। उसे जान से मारने की धमकियां मिली हैं और वह किसी शेल्टर होम में रहने को मजबूर है। हमारे देश में यह सब उसी दौरान हो रहा है, जब हज पर इस साल पहली बार 2000 से ज्यादा महिलाएं बिना किसी पुरुष रिश्तेदार के जा रही हैं। गौरतलब है कि इसी साल अकेली महिलाओं के हज पर जाने पर लगे बैन को हटाया गया है। अब तक महिलाएं किसी पुरुष रिश्तेदार के साथ ही हज पर जा पाती थीं। यह वह देश है जो हज पर अकेले जाने की पाबंदियों को हटाने पर खुश हो जाता है, जबकि ट्रिपल तलाक का मामला उठे तो अभी तक संसद में हंगामा ही होता है। क्यों देश में महिलाओं के विकास की जगह धर्म के मामलों में ही उनके हक-हुकूक अहम माने जाते हैं। क्यों नहीं हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि देश की महिलाओं को धार्मिक हक से पहले उसके स्वास्थ्य से जुड़े हक मिलने चाहिए, संघर्ष पहले उन्हें भरपूर पोषण और बेहतर इलाज के लिए होना चाहिए। धार्मिक आजादी थोड़ी कम भी मिली तो क्या, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाएं कम मिलने से उसकी जान को खतरा है। यह हमारी राजनीति कब समझेगी? वरना हमारा ही देश है जहां नुसरत ने मांग भरी और मंगलसूत्र पहन लिया तो मसला बन गया। राजनीति की कहानियां इसी सिंदूर जैसे लाल रंग से कही जाने लगीं, गुस्से और वैमनस्य से लबरेज।
बजट महिलाओं की उम्मीदों पर कितना खरा ?
महिला वित्तमंत्री के ‘नारी तू नारायणी’ बजट में महिला श्रमशक्ति की भागीदारी पर बात तक नहीं
यामिनी अय्यर, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की प्रेसिडेंट
भारत की पहली पूर्णकालिक महिला वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट पेश किया इसलिए उम्मीदें काफी ज्यादा थीं। यह बजट दो कारणों से महत्वपूर्ण था। पहला यह कि नरेंद्र मोदी सरकार को शानदार जनादेश मिला और दोबारा चुने जाने के बाद यह पहला बड़ा नीतिगत कार्य था। इस जनादेश ने सरकार को भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए कुछ सुधार करने का अभूतपूर्व अवसर दिया। दूसरा, यह बजट बहुत कठिन परिस्थितियों में प्रस्तुत किया गया था- अर्थव्यवस्था काफी धीमी, बेरोजगारी की दर काफी अधिक, भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था, विशेष रूप से कृषि आय में संकुचन हो रहा है और इसके साथ ही पेयजल समस्या भी एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरी है।
ये सभी मुद्दे महिलाओं को प्रभावित करते हैं। बढ़ती बेरोजगारी से देश की महिलाएं काफी प्रभावित हुई हैं। हाल ही के कुछ बरसो में लेबर फोर्स में महिलाओं की भागीदारी तेजी से घटी है। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पाया है कि लेबर फोर्स में केवल 18% महिलाएं हैं जबकि 2011-12 में 25% थीं। विश्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर में भारत 131 देशों में से 121 वें स्थान पर है। साथ ही कई पड़ोसी देशों की तुलना में हमारी लेबर फोर्स में महिलाओं की भागीदारी सबसे कम है। भारत की कृषि अर्थव्यवस्था में संकट का इसमें महत्वपूर्ण योगदान है, क्योंकि यहां काम करने वाली महिलाओं की संख्या ज्यादा रही है। इसके अलावा, जल संकट का महिलाओं पर काफी असर पड़ता है। भारत के मानव विकास सर्वेक्षण के मुताबिक जिन घरों में पानी का कोई स्रोत नहीं है या नल से पानी नहीं पहुंचता, वहां महिलाएं और लड़कियां प्रतिदिन अपने 52 मिनट पानी इकट्ठा करने में खर्च करती हैं, जबकि पुरुष सिर्फ 28 मिनट प्रति दिन। जिस तरह से जल स्रोत सूख रहे हैं इससे भविष्य में महिलाओं को अपना और अधिक समय पानी इकट्ठा करने के लिए देना होगा।
सवाल यह है कि बजट में महिलाओं को क्या मिला? यह इसलिए भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि महिला मतदाता भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण वोटबैंक है। इसलिए राजनीतिक रूप से भी यह उम्मीद की जा रही थी कि बजट महिलाओं पर केंद्रित होगा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ‘नारी तू नारायणी’ शीर्षक के साथ महिला कल्याण के लिए अपने बजट भाषण का एक हिस्सा समर्पित किया। जिसमें स्वामी विवेकानंद द्वारा स्वामी रामकृष्णानंद को भेजे गए एक पत्र का उद्धरण दिया कि महिलाओं की स्थिति में सुधार किए बिना दुनिया में कल्याण की गुंजाइश नहीं है। लेकिन बजट सिर्फ राजनीतिक भाषण नहीं होता। इसमें आवंटन और व्यय का विवरण भी शामिल होता है। अंतरिम बजट में पहले ही विभिन्न योजनाओं के लिए आवंटन कर दिया गया था और अर्थव्यवस्था की ओवरऑल हेल्थ को देखते हुए आवंटित करने के लिए बहुत कम पैसा था। मौजूदा योजनाओं को प्राथमिकता देने पर ध्यान केंद्रित किया गया था, जिनमें से कई को 2018-19 के बजट की तुलना में थोड़ा बढ़ावा मिला, लेकिन कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। जैसे महिला और बाल विकास मंत्रालय के आवंटन में 17% की वृद्धि करते हुए इसे 29,164.90 करोड़ रुपए कर दिया गया। इसमें से 19,834.37 करोड़ रुपए आंगनवाड़ी सेवाओं के लिए है। इसके पहले के वित्त वर्ष में मंत्रालय के लिए 24,758.62 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे। राष्ट्रीय पोषण मिशन (पोषण अभियान) को 3400 करोड़ रुपए आवंटित किया गया है, जबकि 2018-19 में यह 2990 करोड़ था। प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना को पिछले बार की तुलना में दोगुना यानी 2500 करोड़ रुपए से 1200 करोड़ कर दिया गया।
दिलचस्प बात यह है कि 2019 के चुनाव अभियान के दौरान भाजपा द्वारा संदर्भित योजना बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के आवंटन में कोई बदलाव नहीं किया गया और पिछली बार की तरह 280 करोड़ रुपए ही दिए गए। हालांकि सरकार को महिलाओं के लिए आवंटन में वृद्धि नहीं करने को नजरअंदाज किया जा सकता है, लेकिन सभी को नल से पानी उपलब्ध कराने के लक्ष्य के साथ जल शक्ति विजन शुरू करने के लिए तारीफ की जानी चाहिए। हालांकि, मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए महिला श्रम शक्ति की भागीदारी की कठिन चुनौती से निपटने के लिए एक रोडमैप जैसी महत्वपूर्ण चीज इस बजट से गायब थी। वास्तव में अधिक व्यापक रूप से नौकरियों और कृषि सुधारों के मुद्दे को बड़े पैमाने पर अनसुना कर दिया गया और यहीं पर बजट सबसे ज्यादा निराशाजनक रहा। महिलाओं के लिए बनी उज्ज्वला योजना पर बहुत जोर दिया गया है। माना जाता है कि इसकी लोकप्रियता भाजपा की चुनावी सफलता का एक महत्वपूर्ण कारण थी। हालांकि, अध्ययन बताते हैं कि नए उपयोग को प्रोत्साहित करना एक कठिन काम है। जलाऊ लकड़ी और गोबर के उपले काफी आसानी और सस्ते दाम में मिल जाते हैं, साथ ही पारंपरिक स्वाद को चूल्हों पर पके हुए भोजन से जोड़ा जाता है। आरआईसीई संस्थान के एक अध्ययन में पाया गया कि ग्रामीण बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में सर्वेक्षण में शामिल 85% उज्ज्वला योजना लाभार्थियों ने चूल्हों का उपयोग करना जारी रखा। यहां एलपीजी को उपयोग में लाने में कुछ बड़ी रुकावटें हैं जैसे इन्हें भराने के लिए पैसों की किल्लत, भारी सिलेंडर को खराब सड़कों पर एक जगह से दूसरी जगह तक ले जाने के लिए परिवहन की समस्या, सामाजिक-आर्थिक पहलू, जैसे कि महिलाएं ईंधन के लिए बायोमास इकट्ठा करती हैं और साथ ही घर के प्राथमिक निर्णय लेने का अधिकार उनके पास नहीं होता हैैं। अगर सरकार उज्ज्वला के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहती है, तो वास्तविक उपयोग के लिए एलपीजी की डिलीवरी पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
वित्तमंत्री के बजट भाषण में इन बातों को शामिल नहीं किया गया था। महिलाओं के मुद्दों के दृष्टिकोण से, बजट 2019 एक मिश्रित बैग था। इसमें राजनीतिक संदेश महत्वपूर्ण था, महिलाओं से संबंधित योजनाएं प्राथमिकता रही, लेकिन महिला श्रम शक्ति की भागीदारी और एलपीजी सिलेंडरों के उपयोग से जुड़ी कठिन चुनौतियों पर कोई बात नहीं हुई। मेरे आकलन में यह एक औसत प्रदर्शन था!
सरकार के तीनों अंगों में संतुलन जरूरी
विजय चौधरी , ( लेखक बिहार विधानसभा के अध्यक्ष हैं )
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मुद्दा रह-रहकर चर्चा में आता रहता है। संविधान में शतियों के पृथकरण के एक अनोखे स्वरूप की परिकल्पना की गई है। सरकार के तीनों अंगों- विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के स्वतंत्र अस्तित्व एवं उनकी स्वतंत्र कार्यशैली पर ही पृथकरण सिद्धांत आधारित है। संविधान इन तीनों के बीच एक विशेष अंतरसंबंध को रेखांकित करता है।
हमारे संविधान का मूल ढांचा ब्रिटेन की तर्ज पर है, जबकि पृथकरण का सिद्धांत अमेरिकी प्रणाली से लिया गया है। इन तीनों अंगों के बीच आपसी नियंत्रण एवं संतुलन का सिद्धांत भी लागू किया गया है। इसके तहत कार्यपालिका विधायिका के प्रति पूर्ण रूप से जिम्मेदार होती है। वहीं ‘राज्य के नीति के निर्देशक तत्वों’ के तहत अनुच्छेद 50 के अनुसार न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखने की व्यवस्था की गई है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत का उद्गम स्थल संविधान में यहीं से है। फिर अनुच्छेद 137 के द्वारा न्यायिक पुनरावलोकन के सिद्धांत को स्थापित किया गया है जिसके तहत विधायिका और कार्यपालिका के किसी निर्णय अथवा आदेश की न्यायिक समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को है। तीनों अंगों के बीच इस अनोखे अंतरसंबंधों के मूल रचनाकार संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार बीएन राव थे। वह नौकरशाह एवं न्यायविद थे। विभिन्न समितियों के प्रतिवेदनों का अध्ययन कर उन्होंने अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, आयरलैंड इत्यादि देशों का दौरा भी किया। वहां के संविधानों के अध्ययन के साथ न्यायविदों से विमर्श किया। इसमें संविधान सभा सचिवालय के संयुत सचिव एसएन मुखर्जी का नाम भी उल्लेखनीय है, जिन्होंने संविधान के प्रारूप लेखन का काम मूल रूप से किया था। डॉ.भीमराव आंबेडकर के नेतृत्व वाली प्रारूप समिति ने संविधान के जिस प्रारूप पर विमर्श किया था उसका स्वरूप राव ने तय किया था और लेखन मुखर्जी ने किया था। समिति ने व्यापक-विचार विमर्श कर आवश्यक संशोधनों के साथ उसे अंतिम रूप दिया जिसे डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा ने स्वीकृत एवं अंगीकृत किया। डॉ. प्रसाद के मुताबिक राव ही ऐसे व्यति थे जिन्होंने संविधान निर्माण योजना की परिकल्पना की एवं इसकी आधारशिला रखी। डॉ. आंबेडकर ने इन दोनों को भारतीय संविधान एवं भारत की प्रजातांत्रिक यात्रा का मुय शिल्पकार बताया और कहा कि इनके बिना संविधान को अंतिम रूप देने में न जाने कितने वर्ष और लग जाते।
संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का आशय उसकी स्वतंत्र, अप्रभावित एवं निष्पक्ष दबावमुत कार्यशैली से है। लगता है कि संविधान निर्माताओं को ऐसी आशंका थी कि विधायिका अथवा कार्यपालिका के द्वारा इसके अधिकारों के अतिक्रमण या उसे प्रभावित करने की कोशिश हो सकती है। ऐसी स्थिति का प्रभावकारी ढंग से निषेध किया गया एवं न्यायपालिका को ऐसे विकारों से सुरक्षा प्रदान की गई। साथ ही इसे न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार देकर दूसरे अंगों
द्वारा नियमित पथ से विचलित होने पर उसे रोकने का अधिकार भी न्यायपालिका को दिया गया।
दूसरी तरफ संविधान का पहला तात्विक शब्द ‘संप्रभु यानी संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न’ है। संविधान की उद्देशिका में भारत को एक संप्रभु राष्ट्र बनाना संविधान का उद्देश्य बताया गया है। विचारणीय है कि संप्रभु राष्ट्र के रूप में भारत की संप्रभुता कहां निवास करती है? संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली में संप्रभुता निर्विवादित रूप से जनता में निहित है जो अपने द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से इसका उपयोग करती है। संविधान में जिस ‘राज्य’ की परिकल्पना है उसका प्रतिनिधित्व कौन करता है? जैसे अनुच्छेद 50 कहता है कि राज्य की लोकसेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिए राज्य कदम उठाएगा। इसमें वर्णित ‘राज्य’ से या आशय है? दरअसल जनता द्वारा निर्वाचित विधायिका में ही यह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से निहित हो सकता है।
संविधान सर्वाधिक महत्वपूर्ण और उच्चतर कानूनों का संग्रह है। न्यायपालिका को इन कानूनों की रक्षा करने एवं इनके अंतिम निर्वचन का अधिकार है। संविधान सभा का गठन 1937 में हुए विभिन्न प्रांतीय विधानसभाओं के चुने हुए जनप्रतिनिधियों द्वारा निर्वाचन के आधार पर किया गया था। स्पष्ट है कि जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा ही संविधान का निर्माण हुआ है। संविधान सभा एवं विधायिका के अंतरसंबंध को इससे समझा जा सकता है कि संविधान के निर्माण के पश्चात संविधान सभा ही देश की पहली विधायिका (संसद) बन गई थी।
न्यायिक स्वतंत्रता भारतीय जनतंत्र की रीढ़ है और समय-समय पर न्यायपालिका ने ऐतिहासिक निर्णयों के माध्यम से जनतांत्रिक प्रणाली को दूषित एवं विचलित होने से बचाया है। न्यायिक हस्तक्षेप के कारण अनेक भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए और शासन व्यवस्था को दुरुस्त रखने में सहायक सिद्ध हुए, परंतु धीरे-धीरे न्यायिक स्वतंत्रता परिणत होकर न्यायिक सक्रियता का रूप ले चुकी है और न्यायिक पुनरावलोकन अब न्यायिक सर्वोच्चता एवं श्रेष्ठता के रूप में परिभाषित हो रहा है।
न्यायिक सक्रियता के तहत किसी दूसरे अंग यथा विधायिका या कार्यपालिका के कार्य में हस्तक्षेप करना न्यायिक स्वतंत्रता का मकसद नहीं हो सकता है। न्यायिक स्वतंत्रता सर्वस्वीकार्य है, परंतु विधायिका अथवा कार्यपालिका की मर्यादा का हनन करके प्रजातंत्र मजबूत नहीं हो सकता है। संविधान सभा ने न्यायपालिका के अधिकारों को रेखांकित करते समय इसके प्रति पूरी सजगता दिखाई थी। विधायिका और कार्यपालिका न्यायपालिका की स्वतंत्रता का आदर करती हैं। इसी प्रकार ‘संप्रभुता’ एवं ‘राज्य’ के प्रतीक विधायिका एवं उसकी मर्यादा का सम्मान भी उतना ही आवश्यक है। भारतीय प्रजातंत्र की सफलता के लिए सरकार के तीनों अंगों को एक-दूसरे के प्रति समान भाव रखते हुए संतुलन बनाए रखना होगा तभी अधिकतम जनहित सधेगा एवं प्रजातंत्र का भविष्य उज्ज्वल होगा। हमारे संविधान निर्माताओं का सपना भी यही था।
बच्चों की सुरक्षा
केंद्रिय मंत्रिमंडल द्वारा बाल यौन अपराध संरक्षण (पॉक्सो) कानून में संशोधन किया जाना काफी महत्त्वपूर्ण है। जिस ढंग से बाल यौनाचार की भयावह घटनाएं सामने आ रही हैं उनको देखते हुए कड़े कानून की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। पोर्न साइटों पर बच्चों के साथ यौनाचार के वीभत्स दृश्यों ने दुनिया भर में विकृतियां बढ़ाई हैं। भारत भी इसका शिकार हुआ है। ऐसे मामले तेजी से बढ़े हैं। कुछ धनपतियों और प्रभावी लोगों द्वारा अपनी मानिसक कुंठा मिटाने के लिए बच्चों के साथ अजीबोगरीब तरीके के यौनाचार करने की बातें भी सामने आ रहीं हैं। बेचारा कमजोर बालक यौन उत्पीड़नों के सारे कष्टों को सहने के अलावा कर ही क्या सकता है। किंतु सरकार और समाज को तो इसके खिलाफ सामने आना ही होगा। वैसे तो पहले से इसके खिलाफ कानून हैं पर वे बदले यौन विकृति के माहौल में कमजोर पड़ रहे हैं।
इसलिए मोदी सरकार का बाल यौन अपराध संरक्षण (पॉक्सो) कानून को कड़ा करने के लिए संशोधनों को मंजूरी दिया जाना सही दिशा में किया जा रहा प्रयास है। प्रस्तावित संशोधनों में बच्चों का गंभीर यौन उत्पीड़न करने वालों को मृत्युदंड और नाबालिगों के खिलाफ अन्य अपराधों के लिए कठोर सजा का प्रावधान किया गया है। इसमें बाल पोनरेग्राफी पर लगाम लगाने के लिए सजा और जुर्माने का भी प्रावधान शामिल है। इसमें पोक्सो की 10 धाराओं को संशोधित किया गया है। इसे संसद की मंजूरी मिलनी शेष है। कड़ा कानून ऐसे यौन अपराधियों के लिए भय निवारक की भूमिका निभाएगा। हालांकि केवल कानून पर्याप्त नहीं हैं। इसके साथ पुलिस एवं प्रशासन के साथ समाज को भी सक्रिय भूमिका निभानी होगी। बच्चों को किसी तरह फंसा कर लाया जाता है और इसमें कई जगह गिरोहों के सक्रिय होने की भी घटनाएं सामने आई हैं। पूरे समाज का दायित्व परेशानी में फंसे असुरक्षित बच्चों को बचाना और उनकी सुरक्षा व गरिमा सुनिश्चित करना है। सभी को अपना दायित्व समझना होगा। कहीं भी बच्चे यदि संदेहास्पद परिस्थितियों में दिखें तो पुलिस को त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए। हमें भी कहीं बच्चे परेशानी में दिखाई पड़ें तो आगे आना चाहिए और पुलिस को सूचना देनी चाहिए। बच्चे देश के भविष्य हैं। इस भविष्य को अपनी यौन कुंठा के लिए उपयोग करने वाले और उनको इसमें सहयोग देने वाले समाज के दुश्मन हैं। असल में मनुष्य के रूप में ये सब राक्षस हैं। इनके साथ कुछ भी किया जाए वह कम है।
उत्पीड़न के विरुद्ध
बाल यौन उत्पीड़न रोकने संबंधी पाक्सो कानून को और कठोर बनाने की केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी से सुरक्षित बचपन की एक नई उम्मीद जगी है। पिछले कुछ सालों से नाबालिगों के साथ यौन उत्पीड़न और हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं। इसी के मद्देनजर सरकार ने यह फैसला किया है। प्रस्तावित संशोधनों में बच्चों का गंभीर यौन शोषण करने वालों को मृत्युदंड और नाबालिगों के खिलाफ अन्य अपराधों के लिए कठोर सजा का प्रावधान किया गया है। हालांकि दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद यौन उत्पीड़न संबंधी कानूनों को काफी कठोर किया गया था। तब माना गया था कि इससे आपराधिक वृत्ति के लोगों में भय पैदा होगा और यौन हिंसा की घटनाओं में काफी कमी आएगी। मगर ऐसा नहीं हुआ। बल्कि उसके बाद से कम उम्र की बच्चियों के यौन उत्पीड़न और उनकी हत्या की घटनाएं बढ़ी हैं। इसलिए मांग की जा रही थी कि पाक्सो कानून को और कठोर बनाया जाए। जघन्य यौन अपराधों में मौत की सजा का भी प्रावधान किया जाए। इसलिए प्रस्तावित संशोधनों के बाद माना जा रहा है कि ऐसी घटनाओं पर काफी हद तक लगाम लगेगी। मगर देखने की बात है कि इन कानूनों पर अमल कराने वाला तंत्र कितनी मुस्तैदी दिखा पाता है।
बाल यौन उत्पीड़न की कुछ वजहें साफ हैं। एक तो यह कि बच्चों को बहला-फुसला या डरा-धमका कर कहीं ले जाना और फिर उनका यौन उत्पीड़न करना अपेक्षाकृत आसान होता है। छोटे बच्चे या बच्चियां कई बार ऐसा करने वालों को ठीक से पहचान नहीं पातीं, जिससे पुलिस को सबूत जुटाने में दिक्कत आती है। फिर कड़े कानूनों के बावजूद ऐसी हरकतें करने वालों के मन में भय इसलिए नहीं पैदा हो पा रहा कि बलात्कार जैसे मामलों में सजा की दर काफी कम है। इसके अलावा आजकल इंटरनेट पर खुलेआम यौनाचार की तस्वीरें उपलब्ध हैं। हर किसी के हाथ में मोबाइल फोन आ जाने से बहुत सारे लोग ऐसी तस्वीरें देखते रहते हैं। कई लोग ऐसी तस्वीरें साझा भी करते हैं, जिन्हें देख कर अनेक लोग बलात्कार आदि के लिए प्रवृत्त होते हैं। जब उन्हें किसी तरह की मुसीबत में फंसने का अंदेशा नजर आता है, तो पीड़ित या पीड़िता की हत्या तक कर देने में संकोच नहीं करते। इसलिए पाक्सो कानून में प्रस्तावित संशोधनों में अश्लील तस्वीरों यानी पोर्न फिल्मों पर भी नियंत्रण करने का प्रावधान किया है। अश्लील तस्वीरों के प्रसारण पर रोक की मांग भी लंबे समय से उठती रही है, मगर कुछ लोग इसे यौन शिक्षा के लिए जरूरी बता कर ऐसा करने का विरोध करते रहे हैं।
कानूनों को कड़ा बनाने के साथ-साथ पुलिस की जवाबदेही भी अनिवार्य है, क्योंकि इसके बिना कानूनों पर अमल सुनिश्चित नहीं कराया जा सकता। बलात्कार जैसी घटनाओं में पुलिस की जांच में देरी होने से कई सबूत नष्ट हो जाते हैं। फिर कई बार रसूखदार लोगों के प्रभाव में आकर भी कई मामले दबा दिए जाते या समझौते से उन्हें रफा-दफा करने का प्रयास किया जाता है। यों कई लोग अपनी बच्चियों के साथ हुई यौन उत्पीड़न की घटनाओं को इज्जत का मामला मान कर खुद चुप्पी साध लेते हैं, पर जो मामले सामने आते हैं वे पुलिस की ढिलाई की वजह से इंसाफ में न बदल पाएं, तो कानूनों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसलिए उन पक्षों पर भी गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है कि आखिर किस वजह से यौन अपराधियों को दंड नहीं मिल पाता।