ग्लेशियरों का पिघलना खतरनाक
ज्ञानेन्द्र रावत
आज दुनिया के ग्लेशियर संकट में हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन के चलते असमय सूखा और बारिश के साथ समुद्र के जलस्तर में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है, वहीं इससे दुनियाभर के ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। बीते साठ साल से भी कम समय के दौरान समुद्र का जलस्तर काफी बढ़ चुका है। समुद्र का जलस्तर बढ़ने की यही रफ्तार रही तो 2100 तक सभी ग्लेशियर समाप्त हो जाएंगे। उस दशा में होने वाली तबाही की भयावहता की आशंका से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वैज्ञानिक शोधों से स्पष्ट हो गया है कि ग्लेशियरों के पिघलने का जो अनुमान इससे पहले लगाया गया था, हालात उससे भी ज्यादा खराब हैं। इसके पीछे ग्लोबल वार्मिग की बड़ी भूमिका है। आइसलैंड की घटना चौंकाने वाली है, भारत से तकरीब 7500 किलोमीटर दूर आइसलैंड में 30 किमी. लंबा और पांच मंजिला ऊंचा ओके ग्लेशियर पिघल कर मात्र एक किमी. के दायरे में बर्फ का टुकड़ा बनकर रह गया है। राइफ यूनिवर्सिटी, टैक्सास के एसो. प्रोफेसर साइमन हाउ का कहना है कि यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में आइसलैंड के 400 ग्लेशियर और पिघलेंगे। क्लाइमेट चेंज के डिप्टी प्रोग्राम मैनेजर कपिल सुब्रहमण्यम् के अनुसार समूची दुनिया में बीते 30 सालों में दोगुनी रफ्ततार से बर्फ पिघल रही है। नतीजतन, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे से भीषण तबाही का सामना करना पड़ेगा। यह धरती के खत्म होने का संकेत है। आइसलैंड का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि हालात नहीं बदले तो आइसलैंड ग्लेशियरों का स्मारक बन जाएगा। भारतीय वैज्ञानिक डा. डी. पी. डोभाल कहते हैं कि भारतीय ग्लेशियर भी खतरे में हैं। तापमान इसी तरह धीरे-धीरे बढ़ता रहा तो हिमालय के एक तिहाई ग्लेशियरों पर मंडराता संकट नकारा नहीं जा सकता। इससे पहाड़ी और मैदानी इलाके के 30 करोड़ लोग दुष्प्रभावित होंगे। पीने के पानी की कमी पड़ जाएगी। ग्लेशियर जलापूर्ति के सबसे बड़े सेविंग एकाउंट हैं। नदियों को सदानीरा बनाने में इनकी अहम भूमिका है। गौरतलब है कि ग्लेशियर पिघलने से ऊंची पहाड़ियों में कृत्रिम झीलों का निर्माण होता है। इनके टूटने से बाढ़ की संभावना बढ़ती है, नतीजतन ढलान में बसी आबादी पर खतरा बढ़ जाता है। ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियों पर भारत, चीन, नेपाल और भूटान की कमोबेश 80 करोड़ आबादी निर्भर है। इन नदियों से सिंचाई, पेयजल और बिजली का उत्पादन किया जाता है। यदि ये ग्लेशियर पिघल गए तो उस हालत में सारे संसाधन खत्म हो जाएंगे। देखा जाए तो हिमालय के इन 650 ग्लेशियरों में 60 करोड़ टन बर्फ जमी हुई है। उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव के बाद यह तीसरा बड़ा क्षेत्र है, जहां इतनी बर्फ है। यही कारण है कि हिमालयी ग्लेशियर को तीसरा ध्रुव भी कहते हैं। 1975 से 2000 के बीच के 25 सालों में हिमालयी क्षेत्र के तापमान में करीब एक डिग्री की बढ़ोतरी से ग्लेशियरों के पिघलने की दर तेजी से बढ़ी। नतीजतन, हिमालयी ग्लेशियरों से अमूमन 400 टन बर्फ इस दौरान पिघल चुकी है। 1975 से 2000 के बीच ये सालाना दस इंच घटे लेकिन इनके घटने की रफ्तार में 2000 से 2016 के बीच सालाना 20 इंच की बढ़ोतरी हुई। यह बेहद खतरनाक संकेत है। इसका खुलासा कोलंबिया यूनिवर्सिटी के हालिया शोध से हुआ है। हालांकि सभी ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार एक सी नहीं है, लेकिन यह सच है कि कम ऊंचाई वाले ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। कुछ तो सालाना पांच मीटर की दर से घट रहे हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से गंगा और ब्रह्मपुत्र में पानी की कमी होगी और मौसम की रफ्तार में बदलाव आएगा। गौरतलब है कि ग्लेशियरों की यह प्राचीन बर्फ हमारी धरती का सबसे नाजुक हिस्सा है। ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने का सीधा सा अर्थ है कि यहां पर हर साल जमा होने वाली और पिघलने वाली बर्फ का अंतर कितना है। सर्दी में इसकी तह मोटी हो जाती है, और गर्मी में इसकी निचली सतह पिघलती है। यह कितनी बनी और कितनी पिघली, इस पर ही इसका पूरा जीवन निर्भर होता है। समूची दुनिया में ये ग्लेशियर ही ग्लोबल वार्मिग के बैरोमीटर माने जाते हैं। अब यह स्पष्ट है कि यदि ग्लोबल वार्मिग पर अंकुश नहीं लगा तो आने वाले समय में हिमालय की यह पर्वत श्रंखला पूरी तरह बर्फविहीन हो जाएगी। बर्फ के इलाके में दिनोंदिन आ रही कमी से यहां की जैवविविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान का शोध और संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण रिपोर्ट भी इसकी पुष्टि कर चुकी है। जाहिर है कि तापमान में वृद्धि को रोकना समय की सबसे बड़ी मांग है। यह समूची दुनिया के लिए सबसे बड़ी गंभीर चुनौती है।
स्रोत – राष्ट्रीय सहारा
शिक्षा की सूरत
किसी भी देश में विकास की असली कसौटी यह होनी चाहिए कि वहां शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की तस्वीर कैसी है। ये तीनों क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए हैं, इसलिए एक के बेहतर या कमतर होने का असर सीधे तौर पर दूसरे पर पड़ता है। जहां तक भारत में सरकारी व्यवस्था के तहत उपलब्ध कराई जाने वाली शिक्षा का सवाल है तो लंबे समय से इस क्षेत्र में अलग-अलग पहलू से सुधार के सवाल उठाए जाते रहे हैं। खासतौर पर शिक्षकों की कमी का मसला पिछले कई दशकों से लगातार चिंताजनक स्तर पर कायम है, लेकिन दूसरे तमाम क्षेत्रों में विकास के दावों के बरक्स यह हकीकत है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए संतोषजनक कदम भी नहीं उठाए गए। इसमें भी एक बड़ा पहलू अब यह उभर कर सामने आया है कि देश भर में बहुत बड़ी तादाद ऐसे सरकारी स्कूलों की है जो बिना किसी प्रधानाध्यापक के संचालित हो रहे हैं। सवाल है कि शिक्षकों की कमी से जूझते स्कूलों में प्रधानाध्यापकों के अभाव के बीच पढ़ाई-लिखाई की कैसी तस्वीर बन रही होगी?
गौरतलब है कि नीति आयोग की ओर से जारी पहले विद्यालय शिक्षा गुणवत्ता सूचक के मुताबिक अलग-अलग राज्यों में ऐसे हजारों स्कूल हैं जहां कोई प्रधानाध्यापक नहीं है। सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति में बिहार है, जहां के करीब अस्सी फीसद स्कूल बिना प्रधानाध्यापक के चल रहे हैं। हालत यह है कि राजधानी दिल्ली तक में करीब एक तिहाई विद्यालय ही प्रधानाध्यापक के साथ चल रहे हैं। गुजरात, केरल, तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों की तस्वीर जरूर संतोषजनक है, लेकिन देश के ज्यादातर राज्यों में अगर चालीस, पचास या अस्सी फीसद स्कूलों में प्रधानाध्यापक नहीं हैं, तो समझा जा सकता है कि सरकारें स्कूली शिक्षा में सुधार के प्रति किस हद तक उदासीन हैं। नीति आयोग के ताजा आंकड़े को तैयार करने में खुद केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय और विश्व बैंक ने भी सहयोग किया है। ये आंकड़े सन 2016-17 के हैं, लेकिन आज भी इस तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। हाल में आई एक खबर के मुताबिक उत्तर प्रदेश के शिक्षक संगठनों ने यह आरोप लगाया कि राज्य में एक लाख से ज्यादा प्रधानाध्यापकों के पद ही समाप्त कर दिए हैं! क्या सरकारों को लगता है कि शिक्षकों की कमी की गंभीर समस्या को दूर करने के बजाय प्रधानाध्यापकों की जगह भी खत्म या कम करके शिक्षा की सूरत में बदलाव लाया जा सकता है?
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि एक ओर देश में सरकारें शिक्षा का अधिकार कानून लागू करके और व्यापक स्तर पर शिक्षा के प्रति जागरूकता का अभियान चला कर पढ़ाई-लिखाई की सूरत को चमकाने का दावा करती हैं, लेकिन इस तकाजे पर उन्हें यह गौर करना जरूरी नहीं लगता कि राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के मुताबिक सभी माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में एक प्रधानाचार्य या प्रधान अध्यापक और उपप्रधानाचार्य या फिर सहायक प्रधान अध्यापक नियुक्त करना अनिवार्य है। सवाल है कि जब स्कूलों में प्रधानाध्यापकों की मौजूदगी के मामले में यह अफसोसजनक तस्वीर है तो देश भर में लाखों की तादाद में शिक्षकों की कमी का मुद्दा सरकार की प्राथमिकता में कहां होगा! ऐसे में गुणवत्ता से लैस शिक्षा मुहैया कराना तो दूर, अंदाजा लगाया जा सकता है कि सामान्य औपचारिक पढ़ाई-लिखाई भी किस दशा में चल रही होगी। अगर इस सूरत में जल्दी सुधार लाने और स्कूलों में जरूरत के मुताबिक पूरे शिक्षक मुहैया करा कर गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई-लिखाई सुनिश्चित नहीं की गई तो देश के कमजोर आर्थिक हैसियत वाले तबकों के बच्चे शिक्षा के दायरे से बाहर हो जाएंगे या फिर उनके साक्षर होने का कोई मतलब नहीं होगा !
स्रोत – जनसत्ता
किसानों की हालत सुधारेगा ड्रोन से फसलों का आकलन
अंग्रेज़ी की कहावत है ‘बहुत कम और बहुत देर से’ लेकिन भारत में अगर कम भी हो और ज्यादा देर न लगे तो अच्छा माना जाता है। भारत सरकार की फसल बीमा योजना के तहत अब देश के दस राज्यों के 96 जिलों में अंततः ड्रोन से किसान के फसलों का आंकलन किया जाएगा और बीमे की रकम कितनी हो यह त्वरित गति से इस इलेक्ट्रॉनिक उपकरण द्वारा भेजे गए तस्वीरों से तय किया जाएगा। यानी यह पायलट प्रोजेक्ट देश के करीब 15 प्रतिशत क्षेत्र में ही शुरू होगा। खुशी की बात यह है कि जो अच्छी योजना राज्य सरकारों की अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार और नकारात्मक रवैये की वजह से दम तोड़ रही थी वह सजीव ही नहीं होगी बल्कि किसानों के लिए ‘कोरामिन’ दवा साबित हो सकेगी। चीन और अमेरिका क्रमशः 70 और 90 प्रतिशत बीमा कवरेज किसानों को देते हैं, जबकि भारत में 18 फरवरी 2016 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा घोषित की गई यह महत्वाकांक्षी योजना तीन साल बाद मात्र 24 प्रतिशत कवरेज कर पाई। बिहार और पश्चिम बंगाल ने इसे शुरू में ही लागू करने से इनकार कर दिया था। तब कृषि विशेषज्ञों ने माना था कि यह अन्नदाताओं का भाग्य बदलने वाला होगा।चूंकि ब्लॉक और राजस्व विभाग के कर्मचारीयों की जगह ड्रोन फसल के रकबे का सही आंकलन तेजी से कर सकेगा लिहाजा राज्य सरकारों के लिए कोई बहाना नहीं रहेगा और बीमा की राशि का सही आकलन भी हो जाएगा। इसी साल केंद्र ने योजना के नियमों में और सख्ती करते हुए बीमा कंपनियों के लिए किसानों के भुगतान में विलम्ब पर 12 प्रतिशत ब्याज और राज्य सरकारों के लिए भी अगर वे बीमा कंपनियों के प्रीमियम का अपना हिस्सा देने में देर करती हैं, तो पेनल्टी का प्रावधान किया है।चूंकि किसानों को खरीफ, रबी और दलहन-फल के लिए क्रमशः 2, 1.5 और 5 प्रतिशत ही राशि देनी हैं लिहाज़ा उन्हें भी दिक्कत नहीं होगी बशर्ते उन्हें भरोसा हो कि फसल की हानि पर बीमित रकम का भुगतान होगा। उधर भारत-अमेरिका व्यापार समझौते में तमाम कृषि उत्पादों के निर्यात में यहां के किसानों को लाभ मिलेगा जो शुभ संकेत हैं। ड्रोन से प्याज जैसी जिंसों के रकबे व भावी उत्पादन का अनुमान हो सकेगा और उसी के हिसाब से निर्यात बाजार में भारत कदम रख सकेगा। चीन के मुकाबले भारत का प्याज विश्व बाजार में ज्यादा पसंद किया जाता है।
स्रोत – दैनिक भास्कर
भारत – चीन संबंध
चीनी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के ठीक पहले चीन की ओर से यह कहा जाना उल्लेखनीय है कि नई दिल्ली और इस्लामाबाद को कश्मीर मसले का समाधान आपसी बातचीत के जरिये करना चाहिए, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह वही चीन है जो कुछ समय पहले तक इस मामले में पाकिस्तान की भाषा बोल रहा था। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले पर चीन ने न केवल आपत्ति जताई, बल्कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को इसके लिए बाध्य किया कि वह इसका संज्ञान ले। हालांकि ऐसा नहीं हुआ, लेकिन कश्मीर मसले पर चीन की ओर से पाकिस्तान की जैसी खुली तरफदारी की गई उससे भारत में खटास ही पैदा हुई।यह कहना कठिन है कि चीनी राष्ट्रपति की भारत यात्रा इस खटास को कम करने का काम कर सकेगी, क्योंकि चीन अपने प्रति जैसे व्यवहार की अपेक्षा रख रहा है वैसे व्यवहार का परिचय देने से इन्कार कर रहा है। वह अरुणाचल प्रदेश को लेकर अपनी निराधार आपत्तियों से तो भारत को परेशान करता ही है, इस सवाल का जवाब देने से भी इन्कार करता है कि आखिर उसकी ओर से गुलाम कश्मीर यानी पाकिस्तान अधिकृत भारतीय भू-भाग में आर्थिक गलियारे का निर्माण किस हैसियत से कर रहा है?
चीनी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच कुछ मसलों पर सहमति कायम हो सकती है, लेकिन केवल इतना ही पर्याप्त नहीं। जरूरत इस बात की है कि सहमति के इस दायरे को बढ़ाया जाए। इसी के साथ आपसी भरोसे की कमी को प्राथमिकता के आधार पर दूर करने की भी जरूरत है। भरोसे की इस कमी को दूर करने में एक बड़ी बाधा सीमा विवाद पर न के बराबर प्रगति होना है। सीमा विवाद सुलझाने को लेकर बातचीत का सिलसिला जरूरत से ज्यादा लंबा खिंचने के कारण यह लगने लगा है कि चीन इस विवाद के समाधान का इच्छुक ही नहीं।सच्चाई जो भी हो, चीन को यह समझना होगा कि भारतीय हितों की अनदेखी करके आपसी संबंधों को मजबूती नहीं दी जा सकती। यह सही है कि भारत और चीन के बीच असहमति वाले विभिन्न मसलों का समाधान रातोंरात नहीं हो सकता, लेकिन अगर र्बींजग इस्लामाबाद को भारत के खिलाफ एक मोहरे की तरह इस्तेमाल करेगा तो फिर नई दिल्ली को दूसरे समीकरणों पर विचार करना ही होगा।चीन एशिया में अपनी ही चलाना चाहेगा तो मुश्किल होगी ही। यदि चीनी नेतृत्व सचमुच भारत से संबंधों में सुधार चाहता है तो उसे भारतीय हितों की अनदेखी करने वाले अपने रवैये का परित्याग करना ही होगा। उसे यह समझ आए तो बेहतर कि दोनों देश मिलकर साथ-साथ तरक्की कर सकते हैैं।
स्रोत – दैनिक जागरण
चीन को माकूल पैगाम देने का वक्त
भारत व्यापार एवं निवेश सहित तमाम क्षेत्रों में चीन के साथ सहयोग करना चाहता है, लेकिन यह एकतरफा नहीं हो सकता।
विवेक काटजू , (लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ दूसरी अनौपचारिक वार्ता के लिए चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आ रहे हैं। दोनों नेता 11-12 अक्टूबर को तमिलनाडु के मामल्लापुरम में मिलेंगे। मोदी-जिनपिंग के बीच ऐसी पहली वार्ता पिछले वर्ष अप्रैल में चीनी शहर वुहान में हुई थी। इन अनौपचारिक बैठकों का मकसद यही है कि दोनों नेताओं के बीच द्विपक्षीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बहुत सहज माहौल में स्पष्टता के साथ विचारों का आदान-प्रदान हो। यह उम्मीद जताई गई कि इससे मैत्री भाव बढ़ेगा और द्विपक्षीय रिश्तों की राह सुगम होगी। नेताओं के बीच मित्रता भाव रिश्तों को बेहतर बनाने में मददगार होता है, लेकिन इसकी एक सीमा है, क्योंकि देशों की नीतियां हमेशा राष्ट्रीय हितों एवं आकांक्षाओं से निर्धारित होती हैं। यह बात भारत-चीन संबंधों पर भी लागू होती है। महज 40 वर्ष से कम अवधि में चीन एक वैश्विक शक्ति बन गया है। दुनिया में अमेरिका के बाद चीन दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। सैन्य मोर्चे पर एक बड़ी ताकत बनने के बाद वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी तेजी से तरक्की कर रहा है। उसकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जा रही हैं और वह आक्रामक रूप से अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। पूर्वी, दक्षिण-पूर्वी और दक्षिण एशिया में उसका दखल खास तौर पर बढ़ा है। चीन अपना वर्चस्व भारत सहित तमाम महत्वपूर्ण एशियाई देशों की कीमत पर बढ़ा रहा है।
वर्ष 1988 में राजीव गांधी के चीन दौरे के बाद से सभी भारतीय सरकारों ने चीन के साथ कई क्षेत्रों में मेलजोल बढ़ाने की हरसंभव कोशिश की है। हालांकि दोनों देशों के बीच कुछ मुद्दों पर टकराव को देखते हुए एहतियात भी बरती गई। यह रणनीति एकदम सही रही, किंतु इससे भारत-चीन के मतभेद दूर नहीं हुए। चीन ने भारतीय हितों को लेकर अपेक्षित गंभीरता नहीं दिखाई। चीन के रवैये से यही जाहिर होता रहा कि वह भारतीय हितों की अनदेखी करता है। हाल में जम्मू-कश्मीर में मोदी सरकार के संवैधानिक कदम पर उसकी प्रतिक्रिया से एक बार फिर इसकी पुष्टि हुई। भारत सरकार द्वारा यह समझाने के बावजूद चीन ने विरोध दर्ज कराया कि अनुच्छेद 370 हटाने से पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा या चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। चीन ने जम्मू-कश्मीर में बदले घटनाक्रम को लेकर दुनिया भर में भारत के खिलाफ जहर उगलने वाले पाकिस्तान से ही सहानुभूति जताई। पाकिस्तान की मनुहार पर चीन इस मसले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अनौपचारिक बैठक में भी ले गया। हालांकि बैठक के बाद बयान जारी करने की उसकी मंशा पर अन्य सदस्यों ने पानी फेर दिया। इसके बाद चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में जम्मू-कश्मीर का उल्लेख करते हुए कहा कि यह मसला संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र, सुरक्षा परिषद प्रस्तावों और द्विपक्षीय समझौतों के अनुरूप सुलझाया जाना चाहिए। चीन का रवैया पाकिस्तान के लिए मददगार रहा।
हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि चीन और पाकिस्तान की साठगांठ वर्ष 1962 से चली आ रही है। इसी दुरभिसंधि के दम पर पाकिस्तान भारत को लगातार आंखें दिखाता रहा। उसके तेवर अब और ज्यादा तीखे हो रहे हैं। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपैक के चलते उसे एक नया संबल मिला है। भारत ने इसका उचित ही विरोध किया है कि यह भारतीय संप्रभुता का उल्लंघन करने वाली परियोजना है। चीन ने कभी भी पाकिस्तान पर आतंकवाद को खत्म करने के लिए दबाव नहीं डाला। जैश-ए-मुहम्मद के सरगना मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कराने की मुहिम को उसने तभी समर्थन दिया, जब अमेरिका ने उसे सुरक्षा परिषद में बेनकाब करने की धमकी दी।
चीनी राष्ट्रपति के भारत दौरे से ठीक पहले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान और सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा चीन के दौरे पर पहुंच गए। यह दौरा इसी मंशा से किया गया कि भारत-चीन संबंधों में सुधार चीन-पाकिस्तान संबंधों की कीमत पर नहीं हो। यह भी महत्वपूर्ण है कि इमरान खान ने कश्मीर के संदर्भ में दक्षिण एशिया में शांति एवं सुरक्षा पर चर्चा का प्रस्ताव रखा है। भारत इसकी अनदेखी नहीं कर सकता। उसे चीन को यह बताना होगा कि अपने हितों की रक्षा के लिए जो जरूरी कदम होंगे, उन्हें उठाने से वह हिचकेगा नहीं। अरुणाचल प्रदेश में हिम विजय सैन्य अभ्यास से यही संदेश गया। भारत ने चीन की आपत्तियों को उपयुक्त रूप से खारिज किया। पाकिस्तान के साथ-साथ चीन ने सभी दक्षिण एशियाई देशों में अपनी सक्रियता बढ़ाई है। इसके लिए वह अपने विशाल वित्तीय संसाधनों का इस्तेमाल कर रहा है। भारत की सुरक्षा के लिए इनके गहरे निहितार्थ हैं। भारत आर्थिक मोर्चे पर चीन की बराबरी तो नहीं कर सकता, लेकिन वह अपने पड़ोसियों के समक्ष यह पेशकश तो कर ही सकता है कि वे भी भारत की तरक्की के साथ प्रगति करें। इसके लिए आदर्श परस्पर भाव विकसित करना होगा। इस जुड़ाव से पड़ोसी देश भी चीन के साथ करार करते हुए भारत के सुरक्षा हितों को लेकर सचेत रहेंगे। मोदी सरकार इस रणनीति को अपना तो रही है, लेकिन अब इसे एक औपचारिक सिद्धांत के रूप में तब्दील करना होगा।
चीन हिंद महासागर के साथ-साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी अपनी सक्रियता बढ़ा रहा है। इस क्षेत्र में अपनी मौजूदगी बढ़ाने के लिए भारत को एक सतर्क रणनीति अपनानी होगी। उसे अन्य क्षेत्रीय देशों और बड़ी शक्तियों के साथ मिलकर मजबूत नेटवर्क बनाने होंगे। ये नेटवर्क इस क्षेत्र में सामरिक कड़ियों को सशक्त बनाएंगे। इसमें संदेह नहीं कि मामल्लापुरम में दोनों नेताओं के बीच व्यापार एवं निवेश पर गहन चर्चा होगी। चीन को अपनी अर्थव्यवस्था में भारत के लिए दवा जैसे उन क्षेत्रों में दरवाजे खोलने की प्रतिबद्धता दिखानी होगी, जिनमें भारत मजबूत है। वह तरीका विशुद्ध औपनिवेशिक है, जिसमें चीनी फैक्ट्रियां भारतीय कच्चे माल का उपभोग करती हैं और भारत चीनी उत्पादों का आयात करता है। यह सिलसिला कायम नहीं रखा जा सकता। भारत को 5-जी जैसी शक्तिशाली संवेदनशील तकनीक में चीनी कंपनियों को प्रवेश देने से पहले सावधानी से पड़ताल करनी चाहिए।
चीन को तीन जरूरी संदेश अवश्य समझने चाहिए। एक यह कि भारत उसके साथ संघर्ष नहीं चाहता, लेकिन अपने हितों की रक्षा से पीछे नहीं हटेगा। डोकलाम गतिरोध इसका सटीक उदाहरण है। दूसरा यह कि भारत व्यापार एवं निवेश सहित तमाम क्षेत्रों में चीन के साथ सहयोग करना चाहता है, लेकिन यह एकतरफा नहीं हो सकता और चीन को भारत की चिंताओं पर गौर करना होगा। तीसरा यह कि भारत उसके साथ सीमाओं का शांतिपूर्ण समाधान चाहता है और इस मामले में वह ज्यादा अड़ियल रुख न अपनाए। इसमें संदेह नहीं कि शी जिनपिंग के साथ वार्ता के दौरान ऐसे तमाम बिंदुओं पर मोदी मंथन जरूर करेंगे।
स्रोत – नई दुनिया
बांग्लादेश–भारत संबंध
ढाका ट्रिब्यून, बांग्लादेश
परस्पर सहयोग और स्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा साथ-साथ चलती है। नई दिल्ली में आयोजित इंडिया इकोनॉमिक समिट में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना द्वारा चार सूत्रीय प्रस्ताव रखने का बहुत महत्व है। इससे दक्षिण एशिया को मजबूती मिलेगी, परस्पर ज्यादा जुड़ाव होगा और यह क्षेत्र ज्यादा शांतिपूर्ण बनेगा। हमारी दुनिया में दक्षिण एशिया जबरदस्त विविधताओं वाले क्षेत्रों में से एक है। हमारी भाषाई, धार्मिक व जातीय विविधता हमें और मजबूत बनाती है, कमजोर नहीं। इसी कारण यह क्षेत्र किसी भी तरह की सांप्रदायिक संकीर्णता और घृणा से ऊपर उठने के लिए भी जाना जाता है।दुनिया हमारे क्षेत्र के बहुलतावाद को गले लगा सकती है। मगर अफसोस, हाल के दिनों में हमने देखा है कि कट्टरतावाद ने अपना बदसूरत सिर उठाया है। घर और बाहर, दोनों जगह माहौल को बिगाड़ने की कोशिशें हुई हैं। अमन-चैन सुनिश्चित करने के लिए बुरी ताकतों को हाशिये पर डाल देना चाहिए, क्योंकि अमन-चैन के बिना क्षेत्रीय स्थिरता नहीं आ सकती। समानता और समावेश जैसे मुद्दे ऐसे हैं, जिनमें आज की तुलना में अधिक ध्यान देने की जरूरत है।हाल के वर्षों में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था में काफी वृद्धि हुई है, पर अभी भी अधिकांश युवाओं के पास रोजगार नहीं है, इसलिए शेख हसीना का यह कहना सही है कि धन की कमाई समावेशी होनी चाहिए। धन बढे़, तो उसका सबको लाभ हो। अमीरों के लिए अधिक पैसा कमाना ही पर्याप्त नहीं, जरूरी है कि गरीबों को गरीबी से बाहर निकाला जाए और सभी के लिए अवसर मौजूद हों। अभी भी दक्षिण एशिया के देशों के बीच परस्पर विश्वास की कमी है और इस संबंध में बहुत काम करने की भी जरूरत है। आसियान की सदस्य सरकारें परस्पर मजबूत संबंधों को बढ़ावा देने का एक उदाहरण हैं और बेशक, दक्षिण एशियाई देशों को भी वैसे ही लाभदायक तरीके से एकजुट होना चाहिए। जैसे हमारे निजी क्षेत्र ने दिखाया है कि स्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा और सहयोग साथ-साथ चल सकते हैं, ठीक यही सिद्धांत दक्षिण एशिया के देशों के संबंधों पर भी लागू किया जा सकता है। जीत हमारी ही होगी।
स्रोत – हिंदुस्तान