दोधारी तलवार के खतरे
अलोक पुराणिक
भारत सरकार ने रीजनल कांप्रिहेंसिव इकनोमिक पार्टनरशिप में शमिल नहीं होने का फैसला किया है। इसके गंभीर आर्थिक-राजनीतिक परिणाम हैं। रीजनल कांप्रिहंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप यानी आरसेप समझौता ऐसा प्रस्तावित व्यापक व्यापार समझौता है, जिसके लिए आसियान के 10 देशों के अलावा 6 अन्य देश-चीन, भारत, दक्षिण कोरिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच साल 2013 से बातचीत चल रही थी। मोटे तौर पर आरसेप का उद्देश्य एक एकीकृत बाजार बनाने का था यानी आरसेप के तमाम सदस्य देशों को एक दूसरे के बाजार में जाने में आसानी सुनिश्चित की जा सके। भारत के अलावा आरसेप में 15 दूसरे देश हैं। जाहिर है कि अब समझौते में 15 देश रहेंगे, भारत नहीं रहेगा। यूं भारत के इस समझौते में ना रहने से इस समझौते के आर्थिक-राजनीतिक महत्त्व में कमी आएगी। फिर भी इस समझौते का अपना अलग महत्व है। भारत आरसेप में शामिल हो जाता तो फिर समग्र तौर पर आरसेप देशों का बाजार इतना बड़ा हो जाता कि दुनिया की लगभग आधी आबादी इन देशों की निवासी होती और ग्लोबल सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान एक तिहाई होता।
भारत के पास बहुत बड़ा बाजार है, आबादी के मामले में दुनिया का दूसरे नंबर का मुल्क होने के फायदे हैं। आबादी मतलब बाजार, जिसमें घुसने के लिए कई देश, कई कंपनियां उत्सुक होंगी। भारत की सेवा क्षेत्र में महारथ है यानी भारत सेवा क्षेत्र में कई देशों में जाकर निवेश कर सकता है, वहां मुनाफा कर सकती हैं भारतीय कंपनियां। भारत की समस्या है कि उसके पास मजबूत मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर या निर्माण सेक्टर ऐसा नहीं है जो सस्ती रेट पर बढ़िया आइटम तैयार कर सके। कुल मिलाकर स्थिति ऐसी है कि भारत जिन क्षेत्रों में आरसेप के देशों में जाकर बढ़िया कर सकता है, वहां उसे घुसने की इजाजत नहीं है, पर भारत में घुसने की इजाजत वो तमाम देश और कंपनियां चाहते हैं, जो यहां बेपनाह सस्ते आइटम बेच सकते हैं। चीनी कंपनियां इस सूची में सबसे ऊपर हैं। नोट किया जा सकता है कि अब भी जबकि आरसेप समझौता नहीं है, तब भी भारत में बिकने वाले दस स्मार्टफोनों में से सात चाइनीज ब्रांड के हैं। आरसेप जब चाईनीज आइटमों को घुसने की लगभग खुली छूट देगा तब भारत में बनने वाले आइटमों की हालत क्या होगी? सोचा जा सकता है। सच यह है कि अधिकांश व्यापार समझौतों से भारत लाभ नहीं उठा पाया है, क्यों नहीं उठा पाया, यह अलग विश्लेषण का विषय है। आसियान देशों के साथ व्यापार घाटे के आंकड़े देखें तो साफ होता है कि ग्लोबल कारोबार के मामले में भारत पिट रहा है।
2009-10 में आसियान देशों के साथ भारत का व्यापार घाटा करीब 8 अरब डॉलर का था, यह 2018-19 में बढ़कर 22 अरब डॉलर हो गया यानी भारत आसियान देशों से लगातार ज्यादा आयात कर रहा है, और निर्यात कम कर पा रहा है। आरसेप में मूलत: आसियान देश ही शामिल हैं, चीन आरसेप में अतिरिक्त खतरा है। अकेले चीन के साथ पचास अरब डॉलर से ज्यादा का व्यापार घाटा है। आरसेप समझौते का मतलब है कि चीन से तमाम आइटम आना बहुत सस्ता और आसान हो जाएगा। चीन से आने वाले 80-90 प्रतिशत आइटम सस्ते हो जाएंगे यानी सस्ते चाईनीज आइटम घरेलू भारतीय उत्पादों को बाजार से बाहर कर देंगे।
न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया से डेयरी उत्पाद सस्ते आकर भारत के आइटमों के लिए खतरा पैदा करते। पीएम मोदी धन्यवाद के पात्रहै कि उन्होंने देश के दस करोड़ दूध कारोबारियों के हितों की रक्षा की। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड बहुत सस्ते डेयरी उत्पादों से भारत को पाटने क्षमता रखते, अगर आरसेप समझौता हो जाता तो। टैक्सटाइल, रसायन, प्लास्टिक के कारोबार के लोगों की भी यही चिंता है कि सस्ते चीनी आइटम कहीं भारतीय अर्थव्यवस्था को तबाह ना कर दें। चीन अपने यहां आसानी से विदेशी कंपनियों को इजाजत नहीं देता। तमाम चीनी ब्रांड के फोन यहां बिक सकते हैं पर भारत की टेलीकॉम कंपनियों को व्यापक और सस्ती सेवाएं बेचने की इजाजत चीन नहीं देगा यानी चीन एक हद तो मुक्त व्यापार का समर्थक है, पर एक हद के बाद वह कतई तानाशाह देश की तरह बरताव करता है।
2011 में पीटर नवारू और ग्रेग ऑट्री की एक किताब आई थी-डैथ बाय चायना। इसमें बताया गया था कि किस तरह से चीन अमेरिकन अर्थव्यवस्था को तबाह कर रहा है, ट्रंप इस किताब से बहुत प्रभावित हुए थे। इस किताब में बताया गया था कि इन तरीकों से चीन अमेरिका को ठगने की कोशिश करता रहा है-
1) अवैध तरीके से दी जाने वाली निर्यात सब्सिडी; 2) बहुत चतुराई से चीनी मुद्रा की धोखाधड़ी; 3) अमेरिकन तकनीकी चीनियों द्वारा चोरी; 4) पर्यावरण का भारी नुकसान; 5) कामगारों की सेहत और सुरक्षा के साथ समझौता; 6) गैर-कानूनी तौर पर लगाया गया आयात शुल्क; 7) बहुत कम कीमतों के जरिए बाजार पर कब्जा और फिर उपभोक्ताओं का शोषण; तथा 8) विदेशी कंपनियों को चीन से दूर रखना। डैथ बाय चायना के लेखकों का संक्षेप में आशय था कि चीन जानबूझकर अपनी करेंसी युआन को सस्ता रखता है, ताकि उसके आइटम दूसरे देशों में सस्ते मिल पाएं। आरसेप में ना जाने की मतलब यह नहीं है कि कई भारतीय कारोबारी समझ लें कि उन्हें अपने हिसाब से महंगे और घटिया आइटम बेचने का लाइसेंस हासिल हो गया है। यह बात अपनी जगह सही है कि प्रतिस्पर्धा से उपभोक्ता का भला होता है। बहुत लंबे अरसे से कई भारतीय कारोबार बहुत आसान माहौल में काम करने के आदी रहे हैं। याद किया जा सकता है कि एक जमाने में जब भारतीय कार बाजार प्रतिस्पर्धाविहीन था, तब एंबेसडर और फीयेट जैसे कुछेक ब्रांड ही मिलते थे। एंबेसडर ने तो अपने रंग-ढंग कई दशकों तक ना बदले। प्रतिस्पर्धा आई, तो हाल बदले।
हाल में प्रख्यात अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला की अध्यक्षता में एक रिपोर्ट आई है इस विषय पर कि निर्यात कैसे बढ़ाएं। इसमें सुरजीत भल्ला की सिफारिशों का एक आशय यह भी है कि पहले हमें अपना घर दुरु स्त करना होगा। तमाम तरह के ग्लोबल समूह बन रहे हैं, जो आपस में व्यापार कर रहे हैं। हम लंबे समय तक अपने कारोबारियों को यह कहकर नहीं बचा सकते कि अभी हमारे वाले तैयार नहीं हैं, उनकी लागत महंगी है। उनकी क्वालिटी बढ़िया नहीं है। आरसेप में ना शामिल होना राष्ट्रहित का फैसला है, पर कंपनियों को बेहतर ना बनाना, उन पर बेहतर बनने का दबाव ना डालना कतई राष्ट्रहित का फैसला नहीं है। आरसेप एक दोधारी तलवार है, इसके पास जाना खतरनाक है, पर इसके मुकाबले के लिए लंबे वक्त तक तैयारी न करना भी खतरनाक है।
स्रोत– राष्ट्रीय सहारा
बदलाव का नया विद्रूप चेहरा एक मूल्यविहीन समाज देगा
कार्ल मार्क्स-प्रतिपादित सिद्धांत है : सभी सामाजिक मूल्य, अंतर्क्रियाएं, संस्थाएं और राज्य की संरचना तत्कालीन उत्पादन व्यवस्था से निर्धारित होती हैं। कृषि समाज में संयुक्त परिवार की संस्था, सामंतवाद में सामाजिक स्तरीकरण, औद्योगिक अर्थव्यवस्था में राज्य की शक्ति में विस्तार और संयुक्त परिवारों का टूटना इस सिद्धांत की तस्दीक है। नव-औद्योगिक पश्चिमी विश्व के साथ भी भारत भी दौड़ में आ गया है।
ताजा खबर के अनुसार बच्चों को 24 घंटे पालने वाली कंपनियां दिल्ली, मुंबई और हैदराबाद में तेजी से बढ़ रही हैं। इसके दो कारण हैं। पहला, विदेशी ग्राहक कंपनियों का काम जब शुरू होता है भारत में रात होती है और दूसरा भारत में काम करने वाली बहुराष्ट्रीय या बड़ी कंपनियां अपने मानव संसाधन नीति में बदलाव कर रात में भी पुरुष-महिला कर्मियों के अनुपात को 70:30 कर रही हैं, जबकि पहले केवल पुरुष ही नाइट शिफ्ट में रखे जाते थे।
इस परिवर्तन से अगर पति-पत्नी नौकरीपेशा हैं तो शिशु के लिए वे 24 घंटे शिशु-केयर सेंटर चाहते हैं। कंपनियां ये सेंटर अपने यहां भी मुहैया कराने लगी हैं। मूल्य और नैतिकता बचपन से ही सिखाया जाता है। क्या इन व्यावसायिक क्रेश या नए शिशु-केयर केंद्रों में आया यह सब सीख सकती है? बच्चे के व्यक्तित्व के सम्यक विकास में दो संस्थाएं सबसे बड़ी भूमिका निभाती हैं। पहला, मां की गोद और स्कूल स्तर पर शिक्षक।
आज ये दोनों विलुप्त होते जा रहे हैं। उनका स्थान शिशु केयर केंद्र और अधिकतर गायब रहने वाले ‘मैम’ या ‘सर’ ने ले लिया है। इसकी परिणति का एक नमूना देखें। कुछ समय पहले की बात है। भारत के एक वृद्ध की, जो जर्मनी में अपने बेटे के यहां कुछ दिन बिताने गए थे, मौत हुई। बेटा विदेश दौरे पर। जब पुलिस ने बेटे को फ़ोन किया तो उसका जवाब था अंतिम संस्कार करने वाली कंपनी को भुगतान कर दिया है।
कृपया मुझे डिस्टर्ब न करें। भारत में रहने वाले लोगों के लिए आज भी यह खबर चौंकाती है, लेकिन कुछ वर्ष बाद यह आम सामाजिक प्रथा बन जाए? इस भावी मूल्यविहीन समाज का कारण है अर्थ-व्यवस्था में अद्रिष्टिगोचर उत्पादन यानी सेवा क्षेत्र का कृषि व उद्योग के मुकाबले लगातार बढ़ना और उत्पादन की क्रमिक व्यवस्था (असेंबली लाइन प्रोडक्शन) की जगह सामानांतर व्यवस्था रहना।
स्रोत– दैनिक भास्कर
कहीं पुलिस के पास नहीं वाहन तो कहीं नहीं महिला पुलिसकर्मी, परेशानियों से जूझ रही पुलिस
कैलाश बिश्नोई, (अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय)
देश में पुलिस सुधारों की तमाम कवायद के बावजूद अभी भी ज्यादातर पुलिसकर्मी ड्यूटी के बोझ से दबे हैं। औसतन 14 घंटे तक पुलिसकर्मियों को ड्यूटी करनी पड़ती है, यह बात सीएसडीएस और कॉमन कॉज की तरफ से जारी रिपोर्ट ‘स्टेटस ऑफ पोलिसिंग इन इंडिया 2019’ में सामने आई है।
इस रिपोर्ट को 21 राज्यों के बारह हजार पुलिसवालों और उनके परिवार के दस हजार सदस्यों से बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है। इससे पुलिस विभाग के भीतर महिलाओं और ट्रांसजेंडर्स को लेकर ‘पुरुष’ पुलिसकर्मियों के पूर्वाग्रह, अपराध से निपटने के लिए बुनियादी ढांचे की जर्जर हालत, आधुनिक तकनीकों की कमी के बारे में पता चलता है।
इस सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार 46 फीसद पुलिसवालों ने कहा कि उन्हें जब सरकारी वाहन की आवश्यकता थी, तब वाहन मौजूद नहीं था। 41 फीसद मानते हैं कि वे अपराध स्थल पर इसलिए नहीं पहुंच पाए, क्योंकि उनके पास स्टाफ नहीं था। सीएसडीएस की रिपोर्ट के अनुसार देश में महिला पुलिसकर्मी महज 7.28 प्रतिशत ही हैं। जबकि सरकार ने तय किया है कि हर राज्य में 33 फीसद महिला पुलिसकर्मी होनी चाहिए। लेकिन किसी भी राज्य में यह संख्या पूरी नहीं हुई।
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सक्षम पुलिस तंत्र का होना जरूरी है। कानून- व्यवस्था की अच्छी स्थिति में ही देश का आर्थिक विकास हो पाता है। लेकिन भारतीय पुलिस आज भी 1861 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए पुलिस अधिनियम के माध्यम से संचालित होती है। पुलिस प्रशासन का मूल काम समाज में अपराध को रोकना और कानून व्यवस्था को कायम रखना है। जबकि ब्रिटिश हुकूमत ने 1861 के पुलिस अधिनियम का निर्माण दरअसल भारतीयों के दमन और शोषण के मूल उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किया था। इसलिए दमनकारी और शोषणकारी पुलिस अधिनियम की राह पर चलने वाली पुलिस व्यवस्था से स्वच्छ छवि की उम्मीद कैसी की जा सकती है? सच यह है कि इसी कारण से समाज में पुलिस का चेहरा बदनाम हुआ।
हमारा दुर्भाग्य है कि हम अभी तक ब्रिटिश-कालीन पुलिस व्यवस्था में देश की मांग के अनुरूप सुधार करने में नाकाम रहे हैं। अधिकांश राज्य कुछ फेरबदल के साथ पुराने भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 का ही पालन करते हैं। हालांकि अब यह मांग जोर पकड़ने लगी है कि पुलिस अधिनियम, 1861 को किसी ऐसे कानून द्वारा प्रतिस्थापित किया जाए जो कि भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक स्वरूप और बदले हुए वक्त से मेल खाता हो। पुलिस बल अत्यधिक कार्यबोझ से दबी हुई है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस बल अपनी क्षमता का मात्र 45 प्रतिशत ही राष्ट्र को दे पा रहे हैं। बुनियादी ढांचे की कमी, जनशक्ति एवं कार्यात्मक स्वायत्तता का अभाव, इसका मुख्य कारण है। संयुक्त राष्ट्र के मानक के अनुसार प्रति लाख नागरिक पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, लेकिन भारत में यह आंकड़ा 144 ही है। एक तो पर्याप्त पुलिस बल नहीं है, दूसरे स्वीकृत क्षमता के करीब एक चौथाई पद खाली हैं। गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि देश में पुलिस के लगभग पांच लाख पद खाली पड़े हैं। यही नहीं, देश में भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों के कुल 4,883 पद अधिकृत हैं, लेकिन इनमें भी 900 से ज्यादा पद खाली हैं। लिहाजा पुलिस पर कार्य बोझ कम करने के लिए रिक्त सभी पदों को भरना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
देश भर में इस विभाग में लगभग 24 लाख कर्मचारी हैं। लेकिन देश का नागरिक पुलिस थाने में कदम रखने से भी कतराता है। उसे यह भरोसा नहीं है कि उसकी रिपोर्ट दर्ज की जाएगी और उस दिशा में किसी तरह की कार्रवाई भी होगी। दरअसल पुलिस ने जनता का सहयोगी होने के अपने दायित्व को लगभग भुला दिया है। भारतीय पुलिस बल पर यह आरोप अक्सर लगाया जाता है कि यह अनुत्तरदायी तरीके से कार्य करती है। कई घटनाएं यह साबित करती है कि पुलिस या तो अपराध की ओर आंख मूंद लेती है या फिर लापरवाह, अरुचिपूर्ण और अपराध के खिलाफ उत्साहहीन तरीके से कार्य करती है। पुलिस द्वारा अपराध के संबंध में प्राथमिकी दर्ज करने में तमाम तरह के बहाने बनाए जाते हैं।
यहां सवाल यह भी है कि एक औपनिवेशिक मानसिकता से रची-बसी पुलिस व्यवस्था में कैसे नवीन लोकतांत्रिक और संवेदनशील गुण समाहित किए जाएं? इस दिशा में 2006 में पुलिस सुधारों पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देश व द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशें महत्वपूर्ण हैं। सर्वोच्च अदालत का पुलिस सुधार मुख्यत: स्वायत्तता, जवाबदेही और लोकोन्मुख होने की ओर था। लेकिन राज्य सरकारों ने इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई है, जो दुर्भाग्यपूर्ण एवं चिंताजनक है।
देश भर में पुलिस बलों में पर्याप्त और अपेक्षित कौशल तथा प्रशिक्षण की कमी रही है। ऐसे में वक्त की मांग को समझते हुए पुलिस भर्ती और प्रशिक्षण के लिए देशव्यापी ‘एक्शन प्लान’ बनाने की आवश्यकता है। यह समस्त अभियान तकनीक को केंद्र में रखकर चलाया जाए। एक ऐसे पुलिस वाले से हम ईमानदारी की उम्मीद नहीं रख सकते, जो स्वयं रिश्वत देकर पुलिस में भर्ती हुआ है। इसलिए पूरी भर्ती व्यवस्था में पारदर्शिता लानी होगी। प्रधानमंत्री ने पुलिस प्रशिक्षण में भावनात्मक पक्ष पर जोर दिए जाने की बात को स्वीकार किया है। उनके अनुसार सामान्य मनोविज्ञान एवं व्यावहारिक मनोविज्ञान को भी पुलिस प्रशिक्षण का अनिवार्य अंग बनाया जाना चाहिए।
भारत में पुलिस सुधार कानून एक लंबी बहस का हिस्सा जरूर रहे हैं, लेकिन सुधार ज्यादातर कागजों तक ही सीमित रह गए हैं जिस कारण पुलिस व्यवस्था को निष्पक्ष, कार्यकुशल, पारदर्शी और पूर्णरूप से उत्तरदायी नहीं बनाया जा सका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में पुलिस प्रमुखों के एक सम्मेलन में पुलिस को स्मार्ट बनाने की बात की थी। पुलिस को स्मार्ट बनाने की कल्पना से जुड़े ये आदर्श वाक्य हैं- पुलिस संवेदनशील हो, आधुनिक और गतिशील हो, सतर्क और जिम्मेदार हो, भरोसेमंद एवं दायित्व का निर्वहन करने वाली हो और तकनीक में दक्ष व प्रशिक्षित हो।
स्रोत– दैनिक जागरण
इंसानी स्वार्थ की भेंट चढ़ता पर्यावरण
भवदीप कांग, (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं)
इन दिनों उत्तर भारत के अनेक शहर धुंध की चपेट में हैं। चाहे दिल्ली-एनसीआर हो, हरियाणा का सिरसा, पंजाब का जालंधर या उत्तर प्रदेश का लखनऊ, इनमें रहने वाले लोगों का दम घुट रहा है। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में किसानों द्वारा रबी सीजन की बुआई से पूर्व अपने खेतों की सफाई के लिए पराली जलाने से उठे धुएं ने इन शहरों को कंबल की तरह ढंक लिया है। इस त्रासद स्थिति में शहरवासियों को समझ में आ रहा है कि भारतीय कृषि में कितनी गंभीर समस्याएं हैं।
वास्तव में यह समस्या सिर्फ भारत की नहीं है। बल्कि कहें कि 2019 में दुनिया को प्रभावित करने वाली बड़ी आगजनी की घटनाओं और उनसे उपजे धुएं के बादलों की जड़ में कहीं न कहीं कृषि का जुड़ाव रहा है। इस साल भारत, दक्षिण अमेरिका और दक्षिण-पूर्व एशिया में जो बड़ी आग लगीं, उनसे उठते धुएं को अंतरिक्ष में मौजूद उपग्रहों से भी देखा जा सकता है। इस साल की शुरुआत में आर्कटिक क्षेत्र के ग्रीनलैंड, साइबेरिया और अलास्का में घटित आगजनी की घटनाएं तो प्राकृतिक वजहों से हुईं। लेकिन कई बार जंगलों में इसलिए भी आग लगा दी जाती है, ताकि पेड़ों का सफाया कर वहां की जमीन को इंसानी जरूरतों के अनुरूप बनाया जा सके। खेती के लिए जगह बनाने हेतु ठंूठ या खरपतवार को जलाना कोई नई बात नहीं है। सदियों से दुनिया भर में किसानों द्वारा ऐसा किया जाता रहा है। अतीत में, जब आबादी कम थी, जमीन की आसान उपलब्धता थी और प्रदूषण भी कम था, तब इस तरह की कृषि तकनीक से समस्याएं नहीं होती थीं। आज जब जमीनें घट गई हैं, आबादी की अधिकता है और कृषि ‘औद्योगीकृत हो गई है, तब ये प्रक्रियाएं वहनीय नहीं रहीं। लेकिन दुखद रूप से, इंसानी स्वास्थ्य और पर्यावरण की फिक्र किए बगैर किसान अब भी पराली और जंगल जला रहे हैं।
इसी का नतीजा है दुनिया के अनेक हिस्सों में आकाश में छाई धुंध। जून-जुलाई 2019 में आर्कटिक क्षेत्र में दक्षिण अमेरिका के अमेजन बेसिन में आग भड़की, जिसे काफी मशक्कत के बाद बुझाया जा सका। ब्राजील में तो सितंबर तक आग की लपटें उठती रहीं। इंडोनेशिया का आकाश भी आग की लपटों से लाल हुआ। अक्टूबर में भारत की बारी आई।
अमेजन, इंडोनेशिया और भारत में उठी आग की लपटों में एक बात कॉमन है। इनकी शुरुआत किसानों की वजह से हुई। ब्राजील में (जहां कि अमेजन वर्षा वनों का 60 फीसदी हिस्सा है) किसान सोयाबीन की उपज के लिए जमीन चाह रहे थे। इंडोनेशिया में मुख्यत: ऑयल पाम ट्री की पैदावार की खातिर ऐसा किया गया। भारत में धान की पराली को जलाया गया, ताकि खेतों में रबी सीजन की प्रमुख फसल गेहूं की जल्द बुआई की जा सके।
अफसोस की बात है कि जंगल की आग या पराली दहन के प्रति जनता का रिस्पॉन्स भी अस्थिर है। दिल्ली में लोगों ने वायु प्रदूषण के खिलाफ तब सड़कों पर प्रदर्शन किया, जब लगातार कई दिनों तक हवा की गुणवत्ता सुरक्षित स्तर से चार गुना तक ज्यादा खराब पाई गई। लेकिन जैसे ही थोड़ी-बहुत बारिश हो जाए और हवा की गुणवत्ता में सुधार हो कि लोग इसे अगले सीजन तक के लिए भूल जाते हैं।
अगस्त में जब अमेजन के जंगलों में आग लगी थी, तो दुनिया के बाकी हिस्से के ज्यादातर लोगों ने इसे दक्षिण अमेरिका की समस्या के तौर पर ही देखा था। जबकि वास्तव में इससे पूरा विश्व प्रभावित हो रहा था, चूंकि अमेजन हमारी इस धरती का सबसे बड़ा ‘कार्बन शोषक है। इसके बगैर, जिस हवा में हम सांस लेते हैं, उसमें कार्बन डायऑक्साइड का स्तर कहीं अधिक होता।
इस मामले में सरकारों का रिस्पॉन्स तो और भी असंतोषजनक है। ब्राजील के राष्ट्रपति जेर बोल्सानारो ने अमेजन की आग को ठूंठ जलाने का नतीजा बताया। हालांकि विशेषज्ञों का यही कहना था कि ये आग सिर्फ फसलों के अवशेष जलाने की वजह से नहीं लगी, बल्कि जंगलों को इसलिए भी आग लगाई गई, ताकि खेती के लिए और जमीन मिल सके। ब्राजील के अलावा सात अन्य देशों को कवर करने वाले समूचे वर्षावन क्षेत्र में 80,000 से ज्यादा जगहों पर आग लग चुकी है।
इसी तरह सुमात्रा द्वीप पर करीब 2000 जगहों पर लगी आग से उठे धुएं के गुबार से इंडोनेशिया का दम घुट गया। यह आग इतनी भयावह थी कि सिंगापुर के आसमान तक इसका गुबार छा गया और स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिहाज से आपातस्थिति पैदा हो गई। कहा यही जाता है कि वहां ऐसी आगजनियों के जरिए ऑयल पाम ट्री के प्लांटेशन हेतु जंगल साफ किए जा रहे हैं। इंडोनेशियाई द्वीपों पर 2001 से लेकर अब तक करीब 2 करोड़ 60 लाख हेक्टेयर जंगलों को तबाह किया जा चुका है।
भारत की बात करें तो उत्तर भारत में छाई धुंध के लिए मुख्यत: पंजाब, हरियाणा और यूपी में किसानों द्वारा पराली जलाने को जिम्मेदार माना जा रहा है। हालांकि पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने तो इसका दोष केंद्र के सिर मढ़ दिया और राज्य के किसानों को प्रोत्साहन राशि देने के लिए 1700 करोड़ रुपए की मांग रख दी, ताकि उन्हें फसलों के अवशेष जलाने के बजाय हाथ या मश्ाीन से हटाने के लिए प्रेरित किया जा सके। फसल अवशेषों को यंत्रों के जरिए हटाने और नई फसल की बुआई के लिए सरकार को बेलर, मल्चर और हैप्पी सीडर्स जैसे यंत्र उपलब्ध कराने चाहिए।
हालांकि इस समस्या से निपटने हेतु सबिसिडी और तकनीकों पर आधारित समाधान सफल नहीं होंगे। देखा जाए तो यह समस्या मुख्यत: तकनीक की वजह से ही उपजी है। कम्बाइंड हार्वेस्टर के इस्तेमाल की वजह से फसलों के कई इंच लंबे अवशेष खेत में छूट जाते हैं। इन्हें हाथ से हटाने, उखाड़ने में श्रम व समय दोनों लगता है। लिहाजा किसान इसे जलाना ही ठीक समझते हैं। जहां-जहां कम्बाइंड हार्वेस्टर पहुंच रहे हैं, वहां-वहां यह (पराली दहन की) ‘बीमारी भी पहुंचती जा रही है।
बहरहाल, खासकर पंजाब जैसे राज्य में धान की बुआई व कटाई का समय दो माह तक आगे खिसक जाने को भी प्रदूषण की एक वजह बताया जा रहा है। यदि बुआई व कटाई पहले हो जाती, तो हवा की दिशा कुछ इस तरह की होती, जिससे पराली का धुआं दिल्ली-एनसीआर को प्रभावित नहीं करता। ऐसी चर्चाएं हैं कि देरी से बुआई का फैसला बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के दबाव में लिया गया, जो चाहती थीं कि किसान देर से पकने वाली उनकी किस्मों का इस्तेमाल करें। यदि बुआई पहले की तरह अप्रैल-मई में ही हो जाए, तो प्रदूषण की वैसी समस्या नहीं होगी। हालांकि यह समस्या का अधूरा समाधान है, चूंकि इससे पराली दहन तो नहीं रुकेगा।
लोगों की सोच में बदलाव और इस समस्या के प्रति व्यापक जागरूकता के बगैर स्थायी समाधान मिलना मुश्किल है। आज जमीन एक कमोडिटी बन गई है, जिसे खरीदा-बेचा जाता है। किसानों का अपनी जमीन और समुदाय से पहले जैसा जुड़ाव नहीं रहा। अब वह संकीर्ण स्वार्थ के लिहाज से सोचता है और उसका यह नजरिया हमारी सरकारों की वजह से ही बना, जो कृषि में पूंजीवादी सिद्धांतों को बढ़ावा देती हैं। आर्थिक व राजनीतिक हितों की खातिर ऐसी नीतियां बनाई जाती हैं, जिनसे पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। नतीजा यह है कि विभिन्न् देश व उनके किसान हमारी इस धरा के रखवाले होने के बजाय इसके शोषक की बर्ताव करने लगे हैं।
स्रोत– नई दुनिया