प्रदूषण से क्यों और कब तक होता रहेगा नरसंहार
आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को दिल्ली के दमघोंटू प्रदूषण के खिलाफ स्वतः संज्ञान लेना पड़ा। राजनीतिशास्त्र का सिद्धांत तो यह कहता है कि प्रजातंत्र में सरकारें जनसरोकार के प्रति राजशाही या सामंतवाद से ज्यादा सक्रिय होती हैं पर भारत में सरकारों की प्राथमिकताएं कुछ अलग दिखती हैं। कानून के अनुसार अगर कोई किसी की हत्या करे तो उसे फांसी या आजीवन कारावास तक की सजा मिलती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और शिकागो यूनिवर्सिटी की रिपोर्टों के अनुसार भारत में प्रदूषण पिछले 20 सालों में 69 फीसदी बढ़ा। जिससे करोड़ों लोगों की आयु दस साल कम हुई और हर साल एक लाख बच्चों की मृत्यु हुई। लेकिन, सरकारें कभी भी इतने बड़े ‘नरसंहार’ पर चिंतित नहीं हुईं। जब संकट की खबरें मीडिया में आने लगीं तो स्वयं प्रधानमंत्री और उनके ‘सर्वशक्तिमान’ कार्यालय में बैठकें हुईं। लेकिन, नासा द्वारा भेजे गए आंकड़ों के अनुसार 1 से 6 नवंबर तक पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले पंजाब और हरियाणा में ज्यादा पराली जलाई गई। दरअसल सरकारी आंकड़े भ्रमित करते हैं। बताया गया कि 1 अक्टूबर से 1 नवंबर तक के समय में पिछले इसी काल के मुकाबले 12 प्रतिशत कम पराली जलाने की घटनाएं हुईं। यह नहीं बताया गया कि बारिश देर तक होने के कारण किसानों ने धान की कटाई ही देर से शुरू की। यही कारण है कि पिछले चार दिनों से तथा आने वाले एक सप्ताह तक पराली जलाना और बढ़ेगा और इसके साथ ही दिल्ली गैस चेम्बर बना रहेगा। अगर किसान अपराध कर रहा है तो सरकार एक तरफ सब्सिडी देकर दूसरी तरफ बेहद सख्त कानून बनाकर इस समस्या को ख़त्म कर सकती थी। किसान हाल के कुछ वर्षों में वोट बैंक बन गया है। अगर हर साल देश की राजधानी गैस चेम्बर बन जाती है और धीरे-धीरे दबे पांव प्रदूषण लाखों जिंदगियां लील जाता है तो इसकी जिम्मेदारी किसके ऊपर डाली जाए? मीडिया जब दिल्ली में हुए एक बलात्कार को दिखाता है तो सरकार के मंत्री आरोप लगाते हैं कि ऐसी घटनाएं रिपोर्ट करने से देश की छवि विदेश में खराब होती है। लेकिन, जब अमेरिकी ‘नासा’ संख्या बताता है या वैज्ञानिक वायु गुणवत्ता खराब होने से औसत आयु में 10 वर्ष की कमी की रिपोर्ट देते हैं तो क्या भारत को सम्मान की नजरों से देखा जाता है? सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में स्वतः संज्ञान लेना भी केंद्र व राज्य सरकारों की जड़ता पर मुहर है।
स्रोत– दैनिक भास्कर
भारत ने आरसेप से अंतिम समय में क्यों बनाई दूरी
ए के भट्टाचार्य
यह बहुत चौंकाने वाली बात थी कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने सोमवार को क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) व्यापार समझौते में शामिल नहीं होने का निर्णय लिया। प्रधानमंत्री आरसेप की तीसरी बैठक में हिस्सा लेने के लिए बैंकॉक में मौजूद थे और ऐसा लग रहा था कि भारत इसमें शामिल होगा। परंतु अंतिम समय में भारत ने यह कहते हुए इससे दूरी बना ली कि इस नए कारोबारी समझौते की शर्तें भारत के राष्ट्रीय हितों के खिलाफ हैं। आखिर अंतिम क्षणों में ऐसा क्या हुआ?
16 देशों की सदस्यता वाले आरसेप को दुनिया के सबसे बड़े कारोबारी समूह के रूप में परिकल्पित किया गया था। इसमें आसियान के 10 देश तथा उनके साथ मुक्त व्यापार समझौते वाले छह देश शामिल होने थे, यानी 300 करोड़ लोग। यह पूरी दुनिया की आबादी का 45 प्रतिशत था। इन देशों का सकल घरेलू उत्पाद करीब 21.3 लाख करोड़ डॉलर और विश्व व्यापार में इनकी हिस्सेदारी 40 फीसदी है। भारत के बाहर होने के बाद इस समूह की क्षमता में कमी आएगी लेकिन इसके बावजूद यह दुनिया का सबसे बड़ा कारोबारी समूह बना रहेगा।
भारत के इस निर्णय पर अचंभा स्वाभाविक है। इस सप्ताह के आरंभ में आरसेप शिखर बैठक से पहले सरकार तथा विभिन्न अंशधारक जिनमें औद्योगिक संगठन तथा सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के धड़े शामिल थे, उनकी यही राय निकल रही थी कि भारत के लिए इस विशाल कारोबारी समूह से बाहर रहने के बजाय भीतर रहना बेहतर होगा। कहा गया कि भीतर रहने से सरकार के पास यह अवसर होगा कि वह नियमों के बनते वक्त अपने हितों के मुताबिक उनमें संशोधन कराए। इतना ही नहीं आरसेप में शामिल कई देशों ने भी भारत को यह संकेत दिया कि उन्हें भारत का भीतर रहना पसंद आएगा क्योंकि वह चीन जैसे रसूखदार देश को नियंत्रित रखने में मदद करेगा।
देश का व्यापार बढ़ाने को लेकर सरकार द्वारा नियुक्त उच्चस्तरीय सलाहकार समूह ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश के आरसेप में शामिल होने के कई लाभ हैं। यह रिपोर्ट बमुश्किल 10 दिन पहले दी गई है। रिपोर्ट जारी करने के कार्यक्रम में वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि दस्तावेज गीता, बाइबिल या कुरान जैसा है। अचानक ऐसा क्या हुआ कि आरसेप पर देश का रुख एकदम बदल गया। मोदी के बैठक में शामिल होने का इस अचानक लिए गए निर्णय से सीधा संबंध है। ऐसा कम ही होता है कि कोई शासनाध्यक्ष किसी शिखर बैठक में शामिल हो या अंतिम समय में उससे नाम वापस ले। मोदी ने सोमवार को जो किया उसकी तुलना अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा 12 देशों के प्रशांत-पार समझौते से नाम वापस लेने से की जाएगी। परंतु इन दोनों में अंतर है। ट्रंप ने ऐसी संधि से नाता तोड़ा जिस पर उनके पूर्ववर्ती ने 2016 में हस्ताक्षर किए थे। मोदी ऐसे समझौते पर आगे बढ़ रहे थे जिसे पिछली सरकार ने शुरू किया था और इसे खारिज करने से पहले वह इस पर हस्ताक्षर करने के करीब पहुंचे थे।
परंतु अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की दृष्टि से देखें तो मोदी का इस समझौते से बाहर निकलना उनके लिए झटका माना जाएगा। एक मजबूत नेता समझौता वार्ता में तभी शामिल होता है जब उसे लगे कि राष्ट्रीय हितों की रक्षा की जा सकती है। सवाल यह है कि मोदी जब भारत के हितों की सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं थे तो वह इस वार्ता में क्यों शामिल हुए। मोदी को इस विषय में एक भरोसेमंद वजह देनी होगी। अभी कहा जा रहा है कि भारत आरसेप में शामिल नहीं हुआ क्योंकि सदस्य देश भारत की उस शर्त पर राजी नहीं हुए जिसमें चीन से आयात की सीमा निर्धारित करने, सेवा व्यापार बढ़ाने और भारतीय वस्तुओं और सेवाओं को चीनी बाजार में बेहतर पहुंच सुनिश्चित करने और 2019 को कृषि तथा डेरी क्षेत्र में शुल्क कटौती का आधार वर्ष बनाने की बात शामिल थी। इनमें से कोई मुद्दा नया नहीं था। भारत सरकार को उम्मीद थी कि इस दिशा में आगे बातचीत से राह निकलेगी। ऐसे में बैंकॉक में क्या हुआ जो सरकार ने समझौते में शामिल न होने का निर्णय लिया। क्या आरसेप के सदस्य देश भारत की चिंताओं को तवज्जो नहीं दे रहे थे? क्या ऐसा इसलिए था क्योंकि चीन का प्रभाव बढ़ा? क्या भारत की मोलतोल की क्षमता प्रभावित हुई क्योंकि कश्मीर के घटनाक्रम के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय का रुख बदला?
इस बात में कोई दम नहीं है कि सरकार ने अपना रुख स्वदेशी जागरण मंच के भारी विरोध के बाद बदला। मंच मुक्त व्यापार का विरोधी और संरक्षणवाद का हिमायती है। यह भी सही नहीं कि किसानों और औद्योगिक नेताओं के विरोध के कारण सरकार का रुख बदला। तथ्य तो यही है कि स्वदेशी जागरण मंच ने हमेशा आरसेप का विरोध किया है। मंच की पहले अनदेखी क्यों हुई और वह अचानक महत्त्वपूर्ण क्यों हो गया? इसी तरह मोदी के बैंकॉक जाने के कुछ दिन पहले सीआईआई ने एक वक्तव्य जारी कर भारत के आरसेप में शामिल होने का समर्थन किया था। परंतु गत सोमवार को सीआईआई ने भी अपना रुख बदला और सरकार के आरसेप से हटने का समर्थन किया।
संभव है कि भारत सरकार को बैंकॉक में लगा हो कि उसकी मांगें नहीं सुनी जा रही हैं और उसने अमेरिका के साथ व्यापार समझौते की दिशा में बढऩे का निर्णय किया हो। आरसेप में शामिल होने को अमेरिका भारत के चीन के करीबी साझेदार और चीनी वस्तुओं के नए बाजार के रूप में देख सकता था। इससे चीन पर लगाए उसके प्रतिबंध कम असरदार हों। भारत के आरसेप से बाहर होने ने भारत और अमेरिका के बीच नए व्यापारिक समझौतों की राह आसान की है। यदि अमेरिका भारत के साथ जल्द व्यापार समझौता करता है और भारत चीन द्वारा भारतीय वस्तुओं की पहुंच को नकारने का प्रतिरोध करता है तो भारत के आरसेप से बाहर होने की दलील को एक नया आयाम मिलेगा।
स्रोत– बिजनेस स्टैंडर्ड
नए आर्थिक समझौते से दूरी बनाने के निहितार्थ
अश्विनी महाजन
पिछले कुछ समय से भारत द्वारा क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) के नाम पर 10 आसियान देशों- जापान, दक्षिण कोरिया, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और चीन के साथ-साथ एक नए मुक्त व्यापार समझौते की कवायद चल रही थी, जिस पर सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस घोषणा के साथ कि भारत आरसीईपी में शामिल नहीं होगा, विराम लग गया है। यह समझौता केवल नाम से ही व्यापक नहीं था, बल्कि वास्तव में यह भी अत्यंत विस्तृत समझौता था, जिसमें निवेश, कृषि, डेयरी, मैन्युफैक्चरिंग, ई-कॉमर्स, डाटा समेत तमाम विषय शामिल थे।इस समझौते का कृषि, डेयरी, इस्पात, रसायन, टेलीकॉम, ऑटोमोबाइल, साइकिल, टेक्सटाइल समेत विभिन्न क्षेत्र विरोध कर रहे थे। इस प्रस्तावित समझौते के व्यापक विरोध के चलते सरकार काफी ऊहापोह में थी कि इसे किया जाए या नहीं। बीते दिनों में इस समझौते को भारत के अनुकूल बनाने के संदर्भ में कुछ विषय आरसीईपी में चले, लेकिन ऐसा लगता है कि भारत के उन मुद्दों और चिंताओं का निराकरण नहीं हो पाया। अंतत: प्रधानमंत्री द्वारा समझौते से बाहर आने की घोषणा से तमाम क्षेत्र राहत महसूस कर रहे हैं।
इस समझौते का मूल विषय था अधिकतर वस्तुओं के आयात शुल्क को शून्य करना। मुक्त व्यापार समझौतों का मतलब होता है कि आयात शुल्क को समाप्त कर वस्तुओं की आवाजाही को मुक्त बनाना। गौरतलब है, इस प्रस्तावित समझौते में चीन से आने वाली 80 प्रतिशत वस्तुओं और अन्य देशों से आने वाली 90 से 95 प्रतिशत वस्तुओं पर आयात शुल्क को शून्य करने का प्रस्ताव था। हम जानते हैं कि इस समझौते में 10 आसियान देश भी शामिल थे। आसियान देशों के साथ हमारा मुक्त व्यापार समझौता पहले से ही है, जो 2011 में हुआ था। इस समझौते के बाद आसियान देशों से हमारा व्यापार घाटा लगभग तीनुना बढ़ चुका है। इस समझौते में न तो कोई निकलने का प्रावधान था और न ही पुनर्विचार का।इसके कारण देश के किसानों और उद्योगों को भारी नुकसान सहना पड़ा। लगभग एक महीने पहले भारत के वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने इस समझौते पर पुनर्विचार के लिए आसियान मुल्कों को राजी कर लिया था, जो भारत के लिए काफी फायदेमंद रहेगा। कुल मिलाकर, आरसीईपी देशों के साथ हमारा व्यापार घाटा 105 अरब डॉलर के लगभग है। यदि यह समझौता हो जाता, तो शून्य आयात शुल्कों के कारण इन मुल्कों से आयात की बाढ़ और बढ़ जाती। यही कारण है कि आरसीईपी में भारत के शामिल न होने से भारत के उद्योग, डेयरी और कृषि क्षेत्र खुशी महसूस कर रहे हैं।
यह जानना होगा कि हमारे किसानों का मुकाबला किन विदेशी उत्पादकों से होने वाला था? यहां 10 करोड़ किसानों और गैर-किसानों की जीविका डेयरी पर चलती है, जबकि न्यूजीलैंड का सारा डेयरी उत्पाद (जिसे वे दुनिया भर में निर्यात करते हैं) मात्र साढे़ 11 हजार डेयरियों से आता है, वे दुनिया के कुल डेयरी निर्यात का 30 प्रतिशत हिस्सा रखते हैं। जापान चावल, गेहूं, कपास, चीनी और डेयरी के उत्पादकों के संरक्षण के लिए 33.8 अरब डॉलर (14,136 डॉलर प्रति किसान) की सहायता देता है, ताकि उसके किसानों का हित संरक्षण हो सके, पर भारत में यह सहायता नगण्य है। न्यूजीलैंड के दूध पाउडर की कीमत मात्र 180 रुपये प्रति किलो है, जबकि भारत में दूध पाउडर की कीमत 290 प्रति किलो है। ऐसे में, न्यूजीलैंड से शून्य आयात शुल्क पर डेयरी उत्पाद आने से भारतीय डेयरी की रीढ़ ही टूट जाती।
मोदी सरकार बनने के बाद समस्या यह आई कि यूपीए सरकार द्वारा जो निवेश समझौते किए गए थे, उनके कारण निवेशकों ने भारत सरकार पर मुकदमे करने शुरू कर दिए कि उन मुल्कों के साथ समझौतों के अनुरूप सुविधाएं नहीं दी गईं, इसलिए उन्हें मुआवजा मिलना चाहिए। कई कंपनियां भारी मुआवजा वसूलने में सफल भी हुईं। ऐसे में, इन समझौतों से निजात पाने के लिए उन्हें रद्द करने की कार्रवाई की गई। विडंबना यह थी कि इस आरसीईपी समझौते के बाद देश पुन: उसी जाल में फंस जाता। यही नहीं, इस समझौते के बाद विदेशी कंपनियों द्वारा रॉयल्टी और तकनीकी शुल्क पर अंकुश भी समाप्त हो जाता। प्रधानमंत्री के इस फैसले की आलोचना भी हो रही है, लेकिन देशहित में यह फैसला जरूरी था।
स्रोत– हिंदुस्तान
वकीलों की हड़ताल, पुलिस की बगावत
देश भर में वकील सबसे संगठित ट्रेड यूनियन है। अदालत परिसर मै उनका आचरण किसी ख़राब ट्रेड यूनियन के सदस्यों जैसा हो जाता है।
विभूति नारायण राय
दिल्ली की एक अदालत में रविवार को जो कुछ हुआ, वह न तो पहली बार घटा है और पूरी आशंका है कि यह अंतिम भी नहीं होगा। जल्द ही हमें ऐसी किसी दूसरी घटना के लिए तैयार रहना चाहिए। कुछ अदालतों के परिसर तो इसके लिए कुख्यात हैं, पर देश के किसी भी भाग में यह अप्रत्याशित नहीं है। अप्रत्याशित तो वह प्रतिक्रिया है, जो मंगलवार को दिल्ली पुलिस मुख्यालय के सामने दिखाई पड़ी। हजारों की संख्या में पुलिसकर्मी सड़कों पर उतर आए और उन्होंने अपने गम और गुस्से का इजहार किया। उनके विजुअल टीवी स्क्रीन पर देखते हुए मुझे 1973 के दृश्य याद आए, जब दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में पुलिस ने हड़ताल कर दी थी। यहां पर याद दिलाना उचित होगा कि किसी अनुशासनबद्ध सशस्त्र बल की हड़ताल के लिए बगावत शब्द का प्रयोग किया जाता है और उससे निपटने के लिए वही तरीके नहीं अपनाए जा सकते, जो समाज के दूसरे तबकों की हड़तालों के दौरान इस्तेमाल किए जाते हैं।
यहां यह भी ध्यान रहे कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने अपने कई निर्णयों में वकीलों की हड़ताल को न सिर्फ अवैध घोषित किया है, बल्कि भविष्य की हड़तालों पर भी पाबंदी लगाई है, लेकिन इन आदेशों का कोई असर शायद ही कभी दिखाई दिया हो। अपवाद स्वरूप कुछ मामलों में वकीलों को दंडित किया गया है, मगर आमतौर से दंड तभी दिया गया है, जब वकीलों ने जजों के साथ हिंसा की हो। ऐसा उदाहरण तो ढूंढ़ने पर भी शायद ही मिले, जिसमें समाज के दूसरे तबके, जैसे डॉक्टर, दुकानदार, पुलिसकर्मी या अदालत के छोटे कर्मचारी वकीलों र्की ंहसा के शिकार हुए हों, और उनके पक्ष में भी वैसी ही न्यायिक तत्परता दिखाई पड़ी हो, जैसी वकीलों की शिकायत पर दिखने लगती है। यह सवाल किसी भी नागरिक के मन में उठ सकता है कि अपने सम्मान के प्रति अति संवेदनशील अदालतें बार की हड़तालों को प्रतिबंधित करने वाले अपने फैसलों की धज्जियां उड़ती देखकर हड़तालियों के खिलाफ अवमानना की कार्रवार्ई क्यों नहीं करतीं? इसका उत्तर ढूंढ़ना बहुत मुश्किल नहीं है।
देश भर में वकील सबसे संगठित ट्रेड यूनियन हैं। खासतौर से अदालत परिसर में, जहां वे बड़ी संख्या में मौजूद होते हैं, उनका आचरण किसी खराब ट्रेड यूनियन के सदस्यों जैसा हो सकता है। मुख्य रूप से उनकी ज्यादतियों के शिकार अदालतों के छोटे कर्मचारी होते हैं, कभी-कभी जजों को भी उनके हिंसक व्यवहार का खामियाजा भुगतना पड़ता है। इन दो के अतिरिक्त अदालतों में न्यायिक कर्तव्यों के लिए आने वाले पुलिसकर्मी सबसे अधिक उनके शिकार बनते हैं। पेशेवर अनुशासन के लिए उन्हीं द्वारा चुनी गई संस्थाएं हैं और हम अपवाद स्वरूप ही किसी वकील को कदाचरण के लिए इन संस्थाओं से दंडित होते देखते हैं। उच्च न्यायालयों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने अधीनस्थ न्यायालयों में अनुशासन और न्यायिक शुचिता कायम रखें, पर एक बडे़ ट्रेड यूनियन समूह के खिलाफ वे भी बहुत प्रभावी नजर नहीं आते।
अपनी ट्रेड यूनियन ताकत को लेकर वकील कितने आश्वस्त हैं, इसका उदाहरण रविवार की घटना के अगले दिन दिल्ली की सड़कों पर देखने को मिला, जब वकीलों ने देश की राजधानी में पुलिसकर्मियों और अन्य लोगों को पीटा और संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। यह तब हुआ, जब एक दिन पहले बिना पुलिस का पक्ष सुने अदालत उन्हें राहत दे चुकी थी और यही पुलिसकर्मियों के गुस्से का फौरी कारण भी बना। ट्रेड यूनियन की यही मनोवृत्ति हम इलाहाबाद, लखनऊ या पटना की सड़कों पर भी देख सकते हैं, जहां जरूरी नहीं है कि पुलिस वाले ही उनके शिकार बने हों। बहुत से मामलों में दुकानदार, डॉक्टर या वाहन चालक उन्हें झेलते हैं। शायद ही उनके खिलाफ दर्ज सामूहिक हिंसा का कोई मामला तार्किक परिणति तक पहुंचता है। कुछ ही समय पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र नेता कन्हैया कुमार को पुलिस हिरासत से घसीटकर कुछ वकीलों ने पीटा, जिसे पूरे देश ने चैनलों पर लाइव देखा, पर उनमें अनुशासन कायम रखने वाली किसी संस्था ने कोई प्रभावी कार्रवाई की हो, ऐसा नहीं लगता।
देश की राजधानी में जो कुछ हुआ है, उसे देखते हुए तो लगता है कि सरकार और सर्वोच्च न्यायालय इसे गंभीरता से लेंगे। पुलिसकर्मियों का जमावड़ा स्वत:स्फूर्त हो भी, तब भी इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। किसी सशस्त्रबल के सदस्यों को अपने कमांडरों के हुक्म की अवहेलना की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। हर बल में इस स्थिति से निपटने का एक आंतरिक तंत्र होता है और उम्मीद है कि दिल्ली पुलिस भी इस दिशा में सक्रिय होगी। पर इस बार तो सर्वोच्च न्यायालय से भी सक्रियता की उम्मीद की जानी चाहिए। उसकी इमारत से कुछ ही किलोमीटर के दायरे में न्याय प्रणाली के एक महत्वपूर्ण पुर्जे वकील कानून-कायदे की धज्जियां उड़ाते रहे। उनके मन से यह विश्वास खत्म होना चाहिए कि वे कुछ भी कर लें, उनका कुछ नहीं बिगडे़गा। दिल्ली भर के सीसीटीवी कैमरे उनके ऐसे कुकृत्यों से भरे हुए हैं।
इसे भी गंभीरता से देखने की जरूरत है कि वकालत के पेशे में किस तरह के लोग आ रहे हैं। देश के कुछ चुनिंदा विश्वविद्यालयों और विधि महाविद्यालयों को छोड़ दिया जाए, तो ज्यादातर संस्थानों से अधकचरे ज्ञान और अधूरी समझ वाले कानून के विद्यार्थी निकल रहे हैं और भीड़ के रूप में अदालतों में खप रहे हैं। ये कुछ भी करके रातों-रात अमीर होना चाहते हैं। इस गलाकाट स्पद्र्धा की दुनिया में स्वाभाविक है कि हर अदालत में कुछ ही वकील सफल होते हैं, शेष गैर-पेशेवर तरीकों से भी कामयाबी हासिल करना चाहते हैं। इसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। एक मजबूत ट्रेड यूनियन के सदस्य होने के कारण उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती, जिससे उनका दुस्साहस बढ़ता जाता है। यही समय है, जब कानून की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल कर वकालत का पेशा अपनाने वालों में पेशेवर नैतिकता और अनुशासन कायम करने के लिए उसी तरह की जिम्मेदार संस्था बनाने के बारे में सोचा जाए, जैसा चिकित्सा के क्षेत्र में किया गया है।
स्रोत– हिंदुस्तान