प्लास्टिक के खिलाफ हमें भी जागरूक होना पड़ेगा
जब हम कचरा घर के बाहर या सड़क पर फेंक देते हैं तो गुजरने वाला आदमी सरकार पर अक्षमता का आरोप लगाता है। जब हम शौचालय होने के बावजूद खेत में चले जाते हैं और फिर बीमारी फैलती है तो भी सरकार पर दोष और जब हम अपने बच्चे की असली उम्र कम करवाने के लिए किसी नगरपालिका कर्मचारी को रिश्वत देते हैं तो भी भ्रष्टाचार के लिए सरकार को कोसते हैं। बेशक प्लास्टिक से पर्यावरण को नुकसान के अलावा हमारा सीवर सिस्टम, हमारे जलाशय, नदियां और समुद्र और जानवर तक प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन याद करें कि आज से तीन दशक पहले दूध लाने के लिए स्टील के पात्र का इस्तेमाल किया जाता था और सब्जियों के लिए छोटे-बड़े थैलों का।
दरअसल, सरकार को भी यह अहसास हुआ कि सिंगल यूज प्लास्टिक (एक बार ही प्रयोग होने वाला) पर प्रतिबंध लगाना फिलहाल उचित नहीं होगा जब तक कि इसके सस्ते विकल्प का बड़े पैमाने पर उत्पादन न होने लगे। इसीलिए सरकार ने पूर्ण प्रतिबंध को 2022 तक रोक दिया है पर सरकारी दबाव जारी रहेगा। जरा सोचिए, धूम्रपान न करना और अगर करना भी तो सार्वजानिक स्थानों पर नहीं- इसके लिए भी अगर सरकार को सख्त कानून बनाना पड़े तो यह हमारे विवेक के लिए चुनौती है।
क्या आप स्वस्थ रहे और सिगरेट या बीड़ी पीकर बीमार न हों, शराब पीकर परिवार पर अत्याचार न करें, यह चिंता भी सरकारों को करनी पड़ेगी? फिर हम सरकारों पर यह आरोप क्यों लगाते हैं कि 70 साल में बाल-मृत्यु दर, साक्षरता या कृषि उत्पादन में हम चीन से पीछे क्यों हैं? क्या स्वच्छता भी सरकारी अभियान का हिस्सा होनी चाहिए? मध्याह्न भोजन इसलिए सरकार ने दिया कि इससे गरीब बच्चे भोजन की चिंता छोड़कर स्कूल आएंगे लेकिन पता चला कि ये बच्चे केवल भोजन के वक्त घर से भेजे जाते हैं।
हमारी आवाज तब नहीं उठती जब मुखिया और हेडमास्टर मिलकर बच्चों के कल्याण या शिक्षा के मद में आने वाले पैसे का बंदरबांट कर लेते हैं, क्योंकि तब हम यह देखते हैं कि मुखिया या हेडमास्टर की जाति क्या है। बेहतर होगा कि शहरी समाज स्वयं ऐसी थैलियां खरीदकर आदतन चले, जिसमें जरूरत के सामान रखना सहज हो। अगर समाज में यह चेतना विकसित हो जाए तो सरकारों को ज्यादा समय असली विकास यानी सड़क बनवाने, अस्पताल व विद्यालय खुलवाने और सेवाओं को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए मिल सकेगा।
स्रोत – दैनिक भास्कर
फिर वही पराली दहन
यह हैरान करता है कि बीते वर्षों में तमाम चिंता और चेतावनी जताए जाने के बाद भी दिल्ली के पड़ोसी राज्यों और खासकर पंजाब एवं हरियाणा में पराली जलाया जाना शुरू हो चुका है। हालांकि इन राज्यों में पराली जलाए जाने की सूचना मिलते ही केंद्र सरकार सतर्क हो गई है, लेकिन ऐसा तो बीते वर्षों में भी होता रहा है।
सर्दियों की आहट मिलते ही केंद्र सरकार के साथ-साथ राष्ट्रीय हरित अधिकरण यानी एनजीटी भी पराली जलाने के खिलाफ सक्रिय हो उठता है, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहता है। इससे उत्साहित नहीं हुआ जा सकता कि पिछले वर्षों की तरह इस बार भी केंद्र सरकार दिल्ली के पड़ोसी राज्यों के पर्यावरण मंत्रियों की बैठक बुलाने पर विचार कर रही है, क्योंकि अगर ऐसी कोई बैठक होती है तो भी इसके प्रति सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता कि उत्तर भारत आसमान में छाने वाले धूल और धुएं के गुबार से बच सकेगा।
हालांकि सभी इससे भली तरह परिचित हो चुके हैं कि धूल और धुएं के जहरीले गुबार से बना स्मॉग आम आदमी की सेहत के लिए गंभीर संकट पैदा करता है, लेकिन ऐसे ठोस उपाय नहीं किए जा रहे हैं जिससे किसान पराली न जलाएं।
भले ही एनजीटी के दबाव में राज्य सरकारें पराली जलाने से रोकने के कदम उठाने की हामी भर देती हों, लेकिन बाद में यही अधिक देखने में आता है कि वे कभी संसाधनों के अभाव को बयान करने लगती हैं और कभी किसान हित की दुहाई देने लगती हैं। चूंकि पराली को जलाने से रोकने के मामले में जरूरी राजनीतिक
इच्छाशक्ति का परिचय देने से इन्कार किया जा रहा है इसलिए उत्तर भारत हर वर्ष सर्दियों के मौसम में पर्यावरण प्रदूषण की चपेट में आने को अभिशप्त है। यह समस्या इसलिए गंभीर होती जा रही है, क्योंकि पंजाब और हरियाणा के किसान धान की वे फसलें उगाने लगे हैं जिनमें कहीं अधिक अवशेष निकलता है। यदि केंद्र और राज्य सरकारें पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम को लेकर सचमुच गंभीर हैं तो उन्हें आपस में मिलकर ऐसे कदम उठाने ही होंगे जिनसे किसान पराली जलाने से बचें।
बेहतर हो कि हमारे नीति-नियंता यह समझें कि पराली के निस्तारण का कोई कारगर तरीका अपनाने की जरूरत है। अगर यह दावा सही है कि किसानों को फसलों के अवशेष नष्ट करने वाले उपकरण सुलभ कराए जा रहे हैं तो फिर पंजाब और हरियाणा से पराली जलाने की खबरें क्यों आ रही हैं? कहीं यह कागजी दावा तो नहीं? सच जो भी हो, लगता यही है कि पर्यावरण की रक्षा के लिए जो कुछ किया जाना चाहिए था उससे कन्नी काट ली गई।
स्रोत – नई दुनिया
वैश्विक बाजार में धमक बढ़ाए भारत
सुषमा रामचंद्रन
आपको यह जानकर शायद हैरानी हो कि वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी महज दो फीसदी है। यदि भारत अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में निर्णायक भूमिका निभाना चाहता है तो उसे अपना यह स्तर बढ़ाना ही होगा। गौरतलब है कि ऐसे ज्यादातर देश जिनकी वैश्विक व्यापार में बड़ी भूमिका है, उनकी विकास दर भी उच्च है और वे अपने नागरिकों के लिए रहन-सहन का बेहतर स्तर भी सुनिश्चित करते हैं। चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं इसकी मिसाल हैं कि वैश्विक व्यापार में आपकी भूमिका बढ़ने से कैसे आपके समग्र आर्थिक विकास को भी गति मिलती है। चीन की बात करें तो निर्यात इसकी अर्थव्यवस्था का एक अहम घटक है, लेकिन यह अपने इंडस्ट्रियल इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए भारी मात्रा में विभिन्न् तरह की सामग्रियां आयात भी करता है। वहीं दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अगर बात की जाए तो उन्होंने न सिर्फ संरक्षणवाद से परहेज किया, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में बड़ी ताकत बनने के लिए क्षेत्रीय व्यापार सहभागिता के जरिए आपसी जुड़ाव भी कायम किया।
यह अच्छी बात है कि भारत में भी यह एहसास बढ़ रहा है कि निर्यातोन्मुखी अर्थव्यवस्था बनने के लिए कमर कस लेना चाहिए। हाल ही में निर्यातकों के लिए जो प्रोत्साहक घोषणाएं की गईं और जिस तरह वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने भी 19-20 फीसदी निर्यात वृद्धि को पुन: हासिल करने पर जोर दिया, उससे यह संकेत मिलता है कि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर ज्यादा ध्यान दिया जाएगा। गौरतलब है कि फिलहाल देश में जो आर्थिक सुस्ती का माहौल है, वह अंतरराष्ट्रीय वजहों से भी है। लिहाजा, वाणिज्य मंत्री ने सही समय पर निर्यात की रफ्तार बढ़ाने पर जोर देने की बात कही है। यह सही है कि पिछले दो साल में हमारे निर्यात तकरीबन 9 फीसदी दर से बढ़े, लेकिन इसके पहले वर्ष 2014 से 2016 तक इसमें लगातार गिरावट का दौर रहा।
हालिया दौर में वैश्विक मंचों पर व्यापार के मसले जिस तरह छाए रहे, उससे भी यही रेखांकित हुआ कि दुनिया के बाजारों में हमें ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी होने की जरूरत है। इसकी शुरुआत अमेरिका और चीन के मध्य आयात शुल्क को लेकर तनातनी से हुई, जिसका असर बाकी दुनिया पर भी पड़ा। अमेरिका का ट्रंप प्रशासन आयात शुल्क के मुद्दे पर न सिर्फ चीन से उलझा, बल्कि उसने कनाडा और मेक्सिको जैसे पड़ोसियों समेत कुछ और देशों के साथ भी व्यापार समझौतों को नए सिरे से तय करने की बात कही। यूरोपीय संघ के साथ भी अमेरिका के मतभेद उभर आए और दोनों ही पक्ष एक-दूसरे को शुल्क बढ़ाने की धमकी दे रहे हैं।
ट्रंप प्रशासन ने व्यापार घाटे को लेकर भारत को भी नहीं बख्शा। जहां तक भारत-अमेरिका कारोबार की बात है तो इसमें व्यापार अधिशेष की स्थिति भारत के पक्ष में है। राष्ट्रपति ट्रंप ने पहले हार्ले-डेविडसन मोटरसाइकिलों पर उच्च आयात शुल्क का हवाला देते हुए इस मुद्दे को उठाया, जो बहुत कम संख्या में अमेरिका से आयात की जाती हैं। इसके बाद जब अमेरिका द्वारा भारत समेत कुछ विकासशील देशों को आयात शुल्क में रियायत प्रदान करने वाली जनरलाइज्स सिस्टम ऑफ प्रिफरेंस (जीएसपी) की सूची से बाहर कर दिया तो बात और बिगड़ गई। इससे भारत भी अनेक अमेरिकी सामानों पर उच्च आयात शुल्क लगाने को प्रेरित हुआ।
लेकिन मोदी के हालिया अमेरिकी दौरे के दौरान ट्रंप के साथ उनके गहराते दोस्ताने के बीच ऐसे भी संकेत मिले कि दोनों देशों में व्यापारिक मुद्दों पर मतभेद सुलझाने के लिए सकारात्मक बातचीत जारी है। अब इंतजार इसी बात का है कि दोनों के बीच ये मतभेद कब तक सुलझते हैं। वैसे यदि अमेरिका अपनी जीएसपी प्रणाली के तहत भारत को कुछ फायदा देने के लिए राजी हो जाता है, तो बदले में भारत को भी उसे कुछ रियायतें देनी ही होंगी। यह भी दिलचस्प है कि जहां आर्थिक मसलों को लेकर दोनों में मतभेद बने हुए हुए हैं, वहीं प्रतिरक्षा व सामरिक मामलों में दोनों के बीच नजदीकियां बढ़ रही हैं।
बहरहाल, भले ही भारत-अमेरिका के कारोबारी संबंध उलझे हुए हों, लेकिन भारत एक व्यापक क्षेत्रीय समग्र आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) जैसे समूह की ओर कदम बढ़ा रहा है। गौरतलब है कि आरसीईपी आसियान देशों के साथ-साथ जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों का व्यापारिक समूह है। लेकिन इस समूह के साथ जुड़ने में भारत की सबसे बड़ी चिंता यह है कि कहीं हमारे बाजार में सस्ते आयातित माल (मुख्यत: चीन के) की बाढ़ न आ जाए। यदि हम इसमें शामिल होते हैं तो आयात शुल्क तो घटाने होंगे, लेकिन ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं कि यह विभिन्न् चरणों में किया जाए, ताकि हमारे घरेलू उद्योग इस प्रतिस्पर्द्धा के लिहाज से तैयार हो सकें।
भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह इस क्षेत्रीय व्यापारिक समूह का सदस्य बने, चूंकि इससे वह इनके अहम बाजारों तक पहुंच सकता है। यह सही है कि हमारे उद्योग सस्ते आयातित माल के परिदृश्य से जूझ रहे हैं, लेकिन यहां पर यह भी देखना होगा कि भारत अब तक ऐसे किसी बड़े व्यापारिक साझेदारी समूह का हिस्सा नहीं बना है, लिहाजा इसके लिए आरसीईपी में शामिल होना श्रेयस्कर होगा।
कुछ अध्ययन बताते हैं कि भारत जिन देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते में शामिल हुआ, उनके साथ भले ही हमारा व्यापार घाटा बढ़ा, लेकिन ऐसे समझौते के बगैर तो आयात और भी महंगे होते। इसके अलावा, जब हमारे उद्योग नए बाजारों में अपने लिए संभावनाएं तलाश रहे हैं, तो यह भारत के लिए नुकसानदेह होगा कि वह खुद को आरसीईपी जैसे क्षेत्रीय समूहों से दूर रखे। जहां तक भारतीय उद्योग-धंधों के संरक्षण की बात है, तो इसके लिए आयातित सामग्रियों पर शुल्क बढ़ाने के बजाय अपने उद्योगों को वैश्विक बाजार के हिसाब से प्रतिस्पर्द्धी बनने में मदद करना कहीं ज्यादा उत्पादक होगा। हाल ही में कॉरपोरेट टैक्स की दरें कम करने और एक्सपोर्ट क्रेडिट बढ़ाने समेत कुछ और उपायों के साथ इस दिशा में सुधारों की शुरुआत हुई है। उद्यमियों की राह आसान करने के लिए अन्य सुधार यह हो सकते हैं कि सरकारी तंत्र की लालफीताशाही को रोका जाए और शासकीय सेवाओं के डिजिटलीकरण में तेजी लाई जाए।
भूमंडलीकरण के इस दौर में इसके सिवा और कोई चारा नहीं कि हम ज्यादा वैश्विक बनें और अंतरराष्ट्रीय व्यापार (खासकर निर्यात) का प्रवाह बढ़ाने को देश की आर्थिक रणनीतियों का अभिन्न् हिस्सा बनाएं। वैश्विक स्तर पर कृषि और उद्योग, इन दोनों सेक्टर्स को ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी बनना होगा। यदि ऐसी नीतियां बनाई जाएं, जिनसे कृषि प्रसंस्करित उत्पादों के नियातों में मदद मिले तो ये हमारी अर्थव्यवस्था का अहम आधार बन सकते हैं। इसी तरह इंडस्ट्रीज को समुचित इफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराना होगा, जिससे वे विदेशों के विनिर्माताओं से प्रतिस्पर्द्धा के लायक बन सकें, जिन्हें कि अपने यहां सस्ता कर्ज मिल जाता है, आसान विद्युत आपूर्ति मिलती है तथा जिनके कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप न के बराबर होता है। सभी सरकारी विभागों के जरिए निर्यात के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण मिशन मोड पर विकसित करने की जरूरत है। हमें ऐसी नीतियां तैयार करनी होंगी, जिनमें व्यापार को प्राथमिकता मिले, अन्यथा भारत एक आर्थिक महाशक्ति के तौर पर अपनी क्षमताओं को कभी हासिल नहीं कर सकेगा।
स्रोत – नई दुनिया
आर्थिक हकीकत और कर कटौती का सच
देश की अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत के बीच कॉर्पोरेट कर में कटौती को बड़े सुधारों की शुरुआत मानने की कोई ठोस वजह नहीं है। समूचे परिदृश्य पर अपनी राय रख रहे हैं
देवाशिष बसु
विगत 20 सितंबर को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कॉर्पोरेट कर में कुछ नाटकीय कटौती करने की घोषणा की जिसका लाभ एशियन पेंट्स, नेस्ले, हिंदुस्तान लीवर, बजाज फाइनैंस, एचडीएफसी बैंक जैसे बड़े करदाताओं को होगा। इस कटौती से नई कंपनियों को भी फायदा होगा। उन्हें अब 17.01 फीसदी कर चुकाना होगा। इस घोषणा ने शेयर बाजार को जबरदस्त गति प्रदान की और उसी दिन बाजार 5.3 फीसदी तथा उससे अगले सोमवार को 2.8 फीसदी की उछाल के साथ बंद हुए। यह हालिया इतिहास में दो दिन की सबसे बड़ी तेजी रही। परंतु वास्तविक प्रभाव मनोवैज्ञानिक ही रहा।
बातों को बढ़ाचढ़ाकर देखना मानव स्वभाव है। यही कारण है कि उम्मीदों को पर लग गए। लोग यह मान बैठे हैं कि यदि प्रधानमंत्री मोदी अचानक ऐसा साहसी और नाटकीय कदम उठा सकते हैं तब तो बड़े आर्थिक सुधार उनकेलिए बच्चों का खेल हैं। वर्ष 2014 से ही कारोबारी और निवेशक इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। पांच वर्ष तक वे यह मानते रहे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार को पता है कि विकास दर को बढ़ाने के लिए उसे क्या करना है। सिने अभिनेताओं के प्रशंसकों की तरह प्रधानमंत्री मोदी में उनका यकीन बरकरार रहा। आज भी प्रधानमंत्री मोदी को सही इरादों और मजबूत इच्छाशक्ति वाला नेता माना जाता है।
नोटबंदी जैसी भारी चूक और वस्तु एवं सेवा कर के खराब क्रियान्वयन के बावजूद लोगों का यह विश्वास डिगा नहीं है। जबकि इन दो कदमों ने आपूर्ति शृंखला को हिला दिया और अर्थव्यवस्था को खोखला कर दिया। इसके बावजूद जुलाई में आम बजट के ऐन पहले बाजार अब तक के सर्वोच्च स्तर तक पहुंच गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि निवेशकों को एक बड़े बदलावकारी बजट की आशा थी। आखिरकार, प्रधानमंत्री मोदी एक प्रचंड बहुमत के साथ लगातार दूसरी बार सत्ता में आए थे। निवेशकों को लग रहा था कि इस बार बड़े सुधारों की राह में कोई बाधा नहीं है।
हकीकत इससे अलग थी। बीते कुछ महीनों के दौरान हर आर्थिक संकेतक नकारात्मक रहा है। बढ़ती बेरोजगारी, कमजोर निर्यात वृद्धि, दंडात्मक कर, कर आतंक, ढहता सार्वजनिक क्षेत्र, पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि का गिरकर 5 फीसदी हो जाना (पुराने तरीकों से आकलन करें तो यह महज 3.5 फीसदी है), वाहनों की बिक्री 20 वर्ष के निचले स्तर पर है, विनिर्माण में कोई वृद्धि नहीं हो रही और वित्तीय सेवाओं और बैंकिंग में संकट के बादल छाए हुए हैं। ये सारी बातें मिलकर हालात को और खराब कर रही हैं और सरकार के कट्टर समर्थक भी इनकी अनदेखी नहीं कर पा रहे हैं। जब लगने लगा था कि चीजें हाथ से निकलती जा रही हैं तब सरकार ने भारी कर कटौती की घोषणा कर दी और प्रधानमंत्री मोदी में लोगों का भरोसा बहाल हो गया। हम फिर बड़े सुधारों के अगले दौर की प्रतीक्षा करने लगे।
वृद्धि का ढांचा
ये सुधार कौन से हो सकते हैं? दुनिया भर की आर्थिक सफलताओं के किस्सों को देखें तो वे हमें बताते हैं कि कौन सी बातें सफल होती हैं। एक संतुलित, निरंतर और समान वृद्धि के लिए जमीन, श्रम और पूंजी की बेहतर उत्पादकता आवश्यक है। दुनिया भर का अनुभव हमें बताता है कि उच्च उत्पादकता के दो वाहक हैं: पहली, एक सच्ची बाजार आधारित अर्थव्यवस्था जो आर्थिक कारकों को प्रतिस्पर्धा और प्रोत्साहन दोनों मुहैया कराती हो। इससे कीमतें कम और स्थिर बनी रहती हैं। इससे खपत और निवेश को बढ़ावा मिलता है। दूसरा, एक नियामकीय शासन और न्याय व्यवस्था जो अच्छे कारोबारियों को प्रोत्साहित करे और बुरे कारोबारियों को दंडित। इनके अलावा आर्थिक प्रगति सुनिश्चित करने का कोई परखा हुआ तरीका नहीं है। सन 1990 के दशक में आया बहु प्रशंसित उदारीकरण ये दोनों ही काम करने में नाकाम रहा। यही कारण है कि हमें भ्रष्टाचार, फंसे हुए कर्ज और मुद्रास्फीति का सामना करना पड़ा। अर्थव्यवस्था को इनसे उबरने में ही दशक भर का समय लग गया। बाद की सरकारों ने विकृत पूंजीवाद के जरिये हालात और बिगाड़ दिए।
अगर हालिया कर कटौती ऐसे किसी सुव्यवस्थित ढांचे से उपजी होती तो यह कहीं अधिक बदलावकारी साबित होती। ऐसा कोई ढांचा मौजूद नहीं है। प्रोत्साहन और प्रतिस्पर्धा को गति देने के लिए हमें कारोबारों में प्रवेश और निर्गम को सहज बनाना होगा। हमारे यहां ऐसा नहीं है। कारोबार शुरू करने के लिए दर्जनों मंजूरियों की आवश्यकता होती है। इनमें कई तो बेतुकी होती हैं। इन्हें चलाने की लागत अच्छी खासी होती है और बंद करना भी उतना ही मुश्किल होता है। भूमि अधिग्रहण बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है।
संचालन, नियमन और न्याय व्यवस्था भी कोई खास बेहतर नहीं है। केंद्रीय बैंक बैंकों तथा वित्तीय कंपनियों की निगरानी में बारंबार नाकाम रहा है। बुनियादी ढंाचा क्षेत्र के नियामकों का व्यवहार और राजस्व अधिकारियों की वसूली की प्रवृत्ति बाजार अर्थव्यवस्था के लिए कम घातक नहीं है। इसके चलते काफी समय और संसाधन बरबाद होते हैं। आम जनता की नजर से दूर सरकारी परियोजनाओं की निविदा व्यवस्था में गड़बडिय़ां हैं। इसका असर उत्पादकता पर पड़ता है और भ्रष्टाचार पनपता है। कर कटौती के पीछे सोच सुव्यवस्थित बदलाव की नहीं थी। इसका चाहे जितना स्वागत किया जाए लेकिन यह एकबारगी उठाया गया कदम था। सच तो यह है कि अर्थव्यवस्था के तमाम संकेतक आज 2013 से भी बुरी स्थिति में हैं। सन 2013 में भ्रष्टाचार, विकृत पूंजीवाद और नीतिगत पंगुता से त्रस्त भारत ने मोदी को तमाम आशाओं का केंद्र बना लिया था। यदि कर कटौती आर्थिक दर्शन का हिस्सा होती तो उसे बजट में स्थान मिला होता। यह सही है कि इस कर कटौती का असर इतना व्यापक है कि इसने बजट को पूरी तरह बदल दिया। फिर भी यह स्पष्ट नहीं है कि यह खपत बढ़ाकर मांग में इजाफा कैसे करेगा।
कर कटौती, जुलाई में आए निराश करने वाले बजट के बाद अगस्त में शुरू हुई छह संवाददाता सम्मेलनों की शृंखला के आखिर में की गई। यह दर्शाता है कि यह जीडीपी वृद्धि दर में आई भारी गिरावट के बाद जल्दबाजी में उठाया गया कदम था। हम यही आशा कर सकते हैं कि यहां से आगे सरकार उत्पादकता, मांग और संचालन बेहतर करने पर ध्यान केंद्रित करेगी। यदि ऐसा नहीं हुआ तो कर कटौती से जुड़ी भारी-भरकम आशाएं भी झूठी साबित होंगी।
स्रोत – बिजनेस स्टैंडर्ड