10-09-2019 (Newspaper Clippings)

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नैतिकता : गांधी और आज के नेता

एन.के. सिंह

महात्मा गांधी ने अफ्रीका में वहां रह रहे भारतीयों और स्थानीय लोगों पर अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचार के खिलाफ बगैर कोई फीस लिए कानूनी जंग जीती।

वे वहां इस लिहाज से बेहब मकबूल हो गए थे। यही कारण रहा कि लोग उन पर न्योछावर रहते थे। इसी क्रम में समय-समय पर वहां के लोगों ने उन्हें महंगे उपहार दिए जो सोने-चांदी के जेवर के रूप में ही नहीं हीरे के भी थे। जब भारत लौटने का समय आया तो गांधी को नैतिकता का बोध हुआ और वह समाज द्वारा दिए गए उन उपहारों को वापस समाज के कार्य में ही प्रयुक्त करवाना चाहते थे। पत्नी कस्तूरबा ने विरोध किया यह कह कर ‘कि ये मन से दिए गए उपहार हैं’ और उन्हें लौटना नहीं चाहिए।

जाहिर है कि इस बात को लेकर झगड़ा आगे बढ़ा और ‘बा’ ने दावा किया कि ये उपहार सिर्फ उनके (गांधी) की वकालत की फीस न लेने की वजह से नहीं हैं, बल्कि उसमें उनका (बा का) भी योगदान है-खाना बनाने या घर संभालने की जिम्मेदारी के रूप में। लेकिन गांधी जिद पर टिके रहे। ‘बा’ ने अगले तर्क के रूप में बेटों की भावी पत्नियों के लिए ‘जेवर’ की जरूरत की बात कही। बापू ने अकेले में बेटों को भी अपने पक्ष में कर लिया जिन्होंने ‘हमें या हमारी भावी पत्नियों की उस समय की क्षमता के अनुसार जेवर लेने की बात कह कर’ अपनी मां को उपहार लौटने का औचित्य समझाया। लेकिन ‘बा’ अंत में हार गई। सोने-चांदी-हीरे के गहने सहित सभी उपहार एक स्थानीय कल्याण ट्रस्ट बना कर उसे सौंप दिए गए ताकि समाज के सार्वजानिक काम में प्रयुक्त हो सकें। तो यह थी गांधी की सार्वजनिक जीवन में शुचिता की मिसाल। अफसोस कि हमारे नेताओं ने इस सीख को जीवन में उतारने का प्रयास नहीं किया।

स्वतंत्र भारत में आज एक नेता संविधान में निष्ठा की शपथ लेता है। लेकिन उसका निकट रिश्तेदार मंत्री के विभाग की शक्तियों का इस्तेमाल करने वाली निजी कंपनियों में ‘कानूनी सलाहकार’ या वकील नियुक्त हो जाता है ‘मोटे पैसे लेकर’। फिर इस मंत्री के बेटे-बेटी या भतीजे-भतीजियां भी रातों-रात व्यापारिक टैलेंट विकसित कर लेते हैं, और पब्लिक इश्यू तक निकाल देते हैं, जिन्हें इन्हीं निजी कंपनियों या कॉरपोरेट घराने अगले 24 घंटों में ‘सोने के भाव’ खरीद लेते हैं। क्या मंत्री को इतनी समझ नहीं होती कि उसका रिश्तेदार अचानक ‘टैलेंट का खान’ कैसे बन जाता है? भारत में या दुनिया के तमाम विकासशील देशों में भ्रष्टाचार एक नये दौर में प्रवेश कर चुका है जिसे ‘कोल्युसिव (सहमति के साथ)’ या दूसरे शब्दों में ‘पे-ऑफ’ सिस्टम का भ्रष्टाचार कहते हैं, जो 1970 के दशक के पूर्व से चल रहे भ्रष्टाचार ‘कोएर्सवि’ से काफी अलग है। इस किस्म के भ्रष्टाचार का नुकसान अंततोगत्वा सरकार लिहाजा समाज का होता है क्योंकि सत्ता में बैठे लोग और निजी हित में लगे दलाल के साथ एक सहमति बनाते हैं। चूंकि डील किसी ‘पांच तारा होटल में’ ‘किसी तीसरे व्यक्ति के साथ जो मंत्री का ‘आदमी’ होता है’ होती है, लिहाजा मंत्री पर आरोप साबित करना जांच एजेंसियों के लिए मुश्किल होता है जब तक कि पूर्ण ईमानदारी और गहराई से जांच न हो।

भारत के पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम पर तमाम आरोपों के अलावा यह आरोप है कि उनके अधीन आने वाली रेग्यूलेटरी संस्था ‘एफआईपीबी’ (फॉरेन इन्वेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड) ने एक मीडिया कंपनी को विदेशी निवेश हासिल करने के लिए केवल 4.23 करोड़ रुपये की मंजूरी दी थी, लेकिन उन्होंने स्वयं ही 304 करोड़ रु पये के निवेश की इजाजत दे दी। साथ ही आरोप के अनुसार इस संस्था से विदेशी निवेश की इजाजत के एवज में मंत्री ने एक मीडिया कंपनी को अपने बेटे की कंपनी के साथ ‘डील’ करने को है। दरअसल, जब ‘मनी ट्रेल’ (पैसे के मूल स्रेत) की तह में जांच एजेंसियां पहुंचीं तो पाया कि घूस/ब्लैक की कमाई विदेश के रास्ते सफेद करते हुए फिर ऐसी कंपनियों के माध्यम से भारत लाया गया जिसमें मंत्री के बेटे और रिश्तेदारों के संलिप्त होने का आरोप है। वे मामले अलग से जेरे-जांच हैं। लेकिन चिदंबरम का कहना है कि किसी भी एफआईआर में उनका नाम नहीं है।

कोल्युसिव किस्म के भ्रष्टाचार में मूल लाभकर्ता का पता बड़ी मशक्कत से चलता है। ‘बेनामी संपत्ति’ का खुलासा न हो पाने के पीछे भी यही दिक्कत है। पर जांच एजेंसियां थोड़ी गहराई में जाएं तो सब पता चल जाता है ‘मनी ट्रेल’ की तह तक जाने के बाद। हां, यहां पर चिदंबरम या तमाम जांच के घेरे में आए मंत्री-संतरी अपने पक्ष में एक हीं बचाव देते हैं, अगर मेरा बेटा या पत्नी वकील हैं, और कोई कॉरपोरेट घराना उसे कानूनी सलाहकार के रूप में रखता है, तो यह उन दोनों का मौलिक अधिकार है। परिवार है तो पत्नी भी होगी, बेटा-बेटी भी और रिश्तेदार भी और उन सभी के भारतीय नागरिक के रूप में कुछ मौलिक अधिकार भी होंगे जिन्हें कोई बाधित नहीं कर सकता। पर यह तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि मंत्री के रूप में शपथ लेते हुए यह भी कसम खाई थी कि ‘भय या पक्षपात के बिना..और शुद्ध अंत:करण से..विधि के अनुसार..काम करूंगा’।

राजनीतिक दलों में भी यह नैतिकता होनी चाहिए कि ऐसे किसी भी मामले, जिसमें बड़े नेता पर भ्रष्टाचार में संलिप्तता का आरोप लगता है, से उसी समय उससे अपने को तब तक दूर रखें जब तक कि वह इससे बाहर न निकल आए। और ‘भीतर’ तो ‘प्रतिशोध’ रखने वाली सरकार और उसकी ‘रीढ़विहीन’ जांच एजेंसियां कर सकती हैं, लेकिन ‘बाहर’ देश की अदालतें ही करती हैं सरकार नहीं। फिर क्यों न हमारे वर्तमान नेता गांधी वाला आदर्श पेश करें क्योंकि उन्होंने सार्वजानिक जीवन का व्रत लिया है, और जनता ने इसके एवज में उन्हें अपना विश्वास दिया है।

इसका एक कुछ ही वर्ष पुराना उदाहरण देखें। 16 जनवरी, 1996 में स्व. सुषमा स्वराज का बदहवास रूप से पार्टी कार्यालय में आडवानी के कक्ष में घुसना और बताना कि उनके पति के अनुसार ‘हवाला केस में सीबीआई ने अन्य राजनीतिक लोगों के साथ आप के खिलाफ भी मामला दर्ज किया है।’ भौचक आडवाणी ने वाजपेयी समेत अनेक नेताओं के विरोध के बावजूद अगले तीन घंटे में लोक सभा से अपने इस्तीफे की घोषणा ही नहीं की बल्कि यह भी ऐलान किया कि अब वह इस आरोप से मुक्त होने की बाद ही सार्वजानिक जीवन में आएंगे। जन-नेता का ऐसे आरोपों पर रवैया कानून से बचने वाले सामान्य जन का न होकर मानदंड स्थापित करने वाला होना चाहिए। भारतीय जनमानस की एक आदत है कि वह अपने नेता में ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ देखना चाहता है, छिपने वाला और गेट न खोलने वाला आपराधिक व्यवहार नहीं। कांग्रेस को गांधी का आदर्श देखना चाहिए या हाल में आडवाणी का राजनीतिक व्यवहार भी उन्हें दिशा दे सकता है, अगर वह नैतिक मूल्यों में ह्रास का ‘टोटा’ झेल रही है तो।

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