09-10-2019 (Newspaper Clippings)

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सफलता के सफर में मील के नए पत्थर

स्वच्छ भारत अभियान की सफलता से यह उम्मीद बंधी है कि देश जल आपूर्ति हासिल करने और प्लास्टिक कचरे से मुक्ति पाने में भी कामयाब होगा।

परमेश्वरन अय्यर , (लेखक पेयजल एवं स्वच्छता विभाग, जल शक्ति मंत्रालय में सचिव हैं)

अहमदाबाद में सुप्रसिद्घ साबरमती नदी के तट पर करीब 20,000 ऐसे सरपंच और स्वच्छाग्रही आज एकत्रित हो रहे हैं जो जमीनी स्तर पर स्वच्छता के लिए काम करते हैं। ये तमाम लोग ऐसे ऐतिहासिक अवसर पर एकत्रित हो रहे हैं जब देश महात्मा गांधी की 150वीं वर्षगांठ मना रहा है। हम उन्हें एक स्वच्छ भारत की सौगात देने जा रहे हैं जो शायद उन्हें समर्पित की जाने वाली सबसे उपयुक्त श्रद्घांजलि होगी। जमीनी स्तर पर स्वच्छता के काम से जुड़े लाखों लोग इस आयोजन को अपने गांवों में लाइव देख सकेंगे। देश की स्वच्छता क्रांति के वास्तुशिल्पी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस अवसर पर एकत्रित जनसमूह के साथ-साथ देश को संबोधित करेंगे और उन यादों को ताजा करेंगे जब पांच साल पहले उन्होंने लाल किले के प्राचीर से लोगों के व्यवहार में तब्दीली लाने वाले सबसे बड़े अभियान की शुरुआत की थी।

इस अवधि में देश ने खुले में शौच वाले दुनिया के सबसे बड़े देश से स्वच्छता अभियान का प्रेरक बनने तक का सफर तय किया है। भारत का यह सफर कई देशों के लिए प्रेरणा का काम कर रहा है और वे भी इस व्यापक सामाजिक, स्वास्थ्य संबंधी, आर्थिक और पर्यावरण संबंधी प्रभाव वाली चुनौती से निपटने की दिशा में पहल कर रहे हैं। जब स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत हुई थी तब भारत में स्वच्छता का कवरेज केवल 39 फीसदी था। महज पांच वर्ष में देश के ग्रामीण इलाकों में 10 करोड़ से अधिक शौचालय बने हैं और करीब 60 करोड़ लोगों ने खुले में शौच करना बंद कर दिया है। देश के सभी राज्यों ने खुद को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया है। यह केवल इसलिए संभव हो सका क्योंकि राजनीतिक नेतृत्व साथ था। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे निजी तौर पर एक चुनौती के रूप में लिया। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए पर्याप्त वित्तीय सहायता प्रदान की गई। इससे देश के नौ करोड़ से अधिक सामाजिक और आर्थिक रूप से गरीब परिवारों को शौचालय निर्माण में सहायता मिली। इस बीच सरकार, निजी क्षेत्र और विकास संबंधी क्षेत्रों के बीच जबरदस्त साझेदारी देखने को मिली। सबसे अहम बात यह थी कि यह कार्यक्रम सरकारी योजना से अधिक एक जनांदोलन में तब्दील हो गया। स्वच्छ भारत मिशन इस बात की मिसाल है कि कैसे एक व्यापक कार्यक्रम का तेज गति से क्रियान्वयन किया जाए। प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप से इसकी अत्यंत आवश्यकता को महसूस किया गया और देश के विभिन्न राज्यों, जिलों और यहां तक कि गांवों के बीच प्रतिस्पर्धा की भावना उत्पन्न हुई। राजनीतिक नेतृत्व एकदम निचले स्तर तक शामिल नजर आया। इस कार्यक्रम ने शौचालयों से जुड़े पूर्वग्रह को समाप्त किया। प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस पर अपने पहले भाषण में इसे प्रमुखता से शामिल किया और छह लाख प्रशिक्षित स्वच्छाग्रहियों के माध्यम से पंचायतों की बैठक, जन सभाओं में और घर-घर जाकर लोगों में व्यवहार के स्तर पर बदलाव को प्रेरित किया गया। दोहरे पिट वाले स्वउपचारित शौचालयों को देश भर में बढ़ावा दिया गया। देश भर के लोगों ने शौचालय के शुष्क अवशिष्टï को खाली कर शौच से जुड़े कलंक को दूर करने में अहम भूमिका निभाई। इस कार्यक्रम में लोगों के व्यवहार में बदलाव पर जोर दिए जाने का एक अर्थ यह भी था कि इस कार्यक्रम में निरंतरता आए। गांवों के लोगों ने प्रेरणा लेकर अपने यहां शौचालय बनवाए और समुदायों में इनके इस्तेमाल को लेकर भी चेतना का प्रचार प्रसार हुआ। ग्राम सभाओं में छह लाख गांवों ने अपने आप को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया। हाल ही में सर्वेक्षणों से पता चला है कि शौचालय तक पहुंच रखने वाले 95 फीसदी से अधिक लोग इनका नियमित इस्तेमाल करते हैं।

बहरहाल, अब जबकि इस दिशा में मील का पहला पत्थर हासिल हो चुका है, तो यह सफर जारी रहना चाहिए। हम सभी इस तथ्य से वाकिफ हैं कि व्यवहार में आए बदलाव पर टिके रहने और नए मानक तैयार करने में समय लगा है और इसके लिए मूलभूत संदेश पर बार-बार जोर देना जरूरी होता है। यही कारण है कि गत सप्ताह जारी की गई देश की अग्रसोची 10 वर्षीय स्वच्छता नीति में खुले में शौच मुक्ति को निरंतर जारी रखे जाने को प्राथमिकता दी गई है। यह नीति इस बात को रेखांकित करती है कि कैसे देश आम जनता को व्यवहार में लगातार बदलाव की चर्चा और संवाद के सहारे खुले में शौच मुक्ति के लाभों से अवगत कराया जाएगा। इसके साथ ही यह सुनिश्चित किया जाएगा कि इस दौरान कोई पीछे न छूटने पाए।

राज्यों से भी यह कहा गया है कि वे यदि कोई घर या परिवार किसी तरह पीछे छूट गया है तो उसके यहां शौचालय निर्माण को प्राथमिकता प्रदान की जाए। यह नीति इस बात पर भी केंद्रित है कि हर स्तर पर क्षमता विस्तार हो, वित्तीय सहायता के नए माडल सामने आएं और देश के प्रत्येक गांव में ठोस और तरल कचरे के प्रबंधन को प्रोत्साहित किया जाए। इस दौरान प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन को भी तवज्जो दी जाए। स्वच्छ भारत मिशन सहभागिता वाले विकास की नजीर बन चुका है। यहां सरकार पहल करती है और लोग उस कार्यक्रम को पूरा करते हैं। प्रधानमंत्री ने इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर जो आह्वान किया था उसके तहत देश भर से करोड़ों लोग स्वच्छता ही सेवा अभियान के तहत प्लास्टिक कचरे के संग्रह के लिए श्रमदान की पेशकश कर रहे हैं। इस प्रयास का लक्ष्य है प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए एकल प्रयोग वाले प्लास्टिक का इस्तेमाल बंद करना। जो भी प्लास्टिक एकत्रित होगा उसे सड़क निर्माण आदि में इस्तेमाल करके सुरक्षित ढंग से निपटाया जाएगा। इसके माध्यम से अगले कुछ वर्ष के दौरान देश में एकल प्रयोग वाले प्लास्टिक के इस्तेमाल को समाप्त करने की दिशा में एक मजबूत पहल होगी। सरकार सन 2024 तक देश के सभी परिवारों को पाइप से पेयजल उपलब्ध कराने की तैयारी में है। इसके लिए न्यूनतम संभव स्तर पर एकीकृत प्रबंधन किया जाएगा। इस योजना में स्रोत की उपलब्धता से लेकर जलापूर्ति और उसके दोबारा उपयोग तक सारी बातें शामिल हैं।

जिस प्रकार देश स्वच्छता के मामले में नए मानक गढऩे में तैयार रहा, वैसे ही प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन और जलापूर्ति को भी जनांदोलन बनाने का लक्ष्य रहेगा। ऐसे आंदोलनों के पीछे 130 करोड़ लोगों की शक्ति है और इसमें दो राय नहीं कि इसे सफलता मिलेगी।

स्रोत –  बिजनेस स्टैंडर्ड

सुधार के लिए ब्याज दरों में और कटौती का इंतजार

मौद्रिक नीति समिति बैंक दरों को नीचे रखकर विकास देना चाहती है , तो उसे ज्यादा साहस को परिचय देना होगा।

अनुभूति सहाय, अर्थशास्त्री 

इस माह मौद्रिक नीति समिति का फैसला तब आएगा, जब दो अहम बदलाव हो चुके हैं। पहला बदलाव, केंद्र सरकार ने विकास दर में चिंताजनक गिरावट के बाद अर्थव्यवस्था को बल देने के लिए कुछ उपायों या प्रोत्साहनों की घोषणा की है। दूसरा बदलाव, बैंकों की ब्याज दर को आज, यानी 1 अक्तूबर से कुछ बाहरी कारकों (एक्सटर्नल बेंचमार्क) से जोड़ दिया गया है। देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए जो वित्तीय प्रोत्साहन दिए गए हैं, उनका आकार सकल घरेलू उत्पाद के 0.7 प्रतिशत के आसपास है, जिसके परिणामस्वरूप ब्याज दरों में 4 अक्तूबर तक 25 बीपीएस तक की कटौती संभावित है। कई लोग मानते हैं कि वित्तीय प्रोत्साहनों की घोषणा के बाद रेपो रेट (जिस दर पर रिजर्व बैंक अन्य बैंकों को कर्ज देता है) के पांच प्रतिशत से कम होने की संभावना न के बराबर है। फिलहाल बाजार की नजरें मौद्रिक नीति समिति पर टिकी हैं। इंतजार है कि यह समिति भारतीय अर्थव्यवस्था में आगामी तिमाहियों में किस तरह के विकास की उम्मीद रखती है।

हाल ही में कॉरपोरेट टैक्स में जो कटौती की गई है, मध्यावधि रूप से देखें, तो वह सकारात्मक है। हालांकि विकास पर इसका असर कुछ देर से ही होगा। इस कदम से आपूर्ति को लाभ मिलेगा, पर मांग के मोर्चे पर जो कमी अभी चल रही है, उस पर अचानक से कोई असर नहीं होने वाला। हां, सरकार द्वारा घोषित प्रोत्साहनों के कारण आर्थिक गिरावट में कमी आएगी और बाजार में विकास के अनुकूल माहौल बनेगा, पर निकट भविष्य में विकास दर के सात प्रतिशत पर लौटने की संभावना कम है।

अगस्त में जो अनुमान लगाया गया था, उसकी तुलना में विकास दर के अनुमान को और कम करना पड़ सकता है। बैंक दरों में कमी करने की मांग बनी रहेगी। दूसरी ओर, महंगाई कम रखने और विकास को तेज करने का भू-राजनीतिक दबाव बना रहेगा। मौसम से जुड़े मुद्दे भी अर्थव्यवस्था पर दबाव डालना जारी रखेंगे। मान लीजिए, स्थिति के और बिगड़ने से वित्तीय घाटा मुश्किलें खड़ी करता है, तो तय है कि मौद्रिक नीति समिति विकास से अपना ध्यान नहीं हटा पाएगी। आने वाले दिनों में मौद्रिक नीति समिति के सामने चुनौती बनी रहेगी। ब्याज दरों में आगे कटौती की संभावना बनी रहेगी, क्योंकि बैंक ब्याज दर को बाहरी कारकों, जैसे रेपो रेट से जोड़ दिया गया है। वित्त वर्ष 2021 के लिए 4.75 प्रतिशत टर्मिनल रेपो रेट की उम्मीद की जा सकती है। इस फैसले के लागू होने के बाद बैंक दरों का तत्काल असर सुनिश्चित हो जाएगा।बैंक दरों में किसी कटौती का असर जल्द ही अर्थव्यवस्था तक पहुंच सकेगा। पूर्व में की गई कर कटौती का असर सीमित हो जाएगा और कोई भी कर कटौती तुरंत अर्थव्यवस्था को फायदा पहुंचा सकेगी।

यदि मौद्रिक नीति समिति बैंक दरों को नीचे रखकर विकास को बल देना चाहती है, तो उसे थोड़ा ज्यादा साहस का परिचय देना होगा। उसे रेपो रेट को पांच प्रतिशत से भी नीचे ले जाना होगा। भारतीय रिजर्व बैंक भी अपनी ओर से विकास की रफ्तार लौटाने के लिए प्रयासरत है, उसने अपने आंतरिक कार्य समूह की उस रिपोर्ट को विचार के लिए सबके सामने रख दिया है, जिसमें नकदी प्रबंधन संबंधी सिफारिशें शामिल हैं।आंतरिक समिति ने वर्तमान नकदी प्रबंधन ढांचे में बहुत ज्यादा बदलाव से बचने को कहा है। यह गौर करने की बात है, भारतीय रिजर्व बैंक अपनी नई मौद्रिक घोषणाओं के तहत बैंकिंग सिस्टम में और नकदी बढ़ाने के उपाय घोषित करने वाला है। रिजर्व बैंक आश्वस्त होना चाहता है कि अर्थव्यवस्था में नकदी को लेकर कोई समस्या न रहे। विकास के लिए पर्याप्त नकदी या धन तरलता उपलब्ध रहे। बाजार शुरू से ही ज्यादा नकदी उपलब्धता का पक्षधर रहा है। चूंकि ज्यादातर लोग नकदी प्रबंधन ढांचे में बदलाव के पक्षधर नहीं, इसलिए कुल मिलाकर, अर्थव्यवस्था में सुधार को बल प्रदान करने के लिए बैंक दर संबंधी निर्णय ही एक विकल्प बच जाता है।

आज मौद्रिक नीति समिति खाद्य मुद्रास्फीति और वित्तीय घाटे को लेकर चिंतित है। विश्वास है, बैंक दर में कटौती के लिए उसके दरवाजे खुले हैं। इन तमाम प्रयासों के बावजूद अभी जिस तरह की घरेलू स्थिति है, जैसी वैश्विक अनिश्चितताएं चल रही हैं, उनके कारण जल्दी राहत के मजबूत संकेत नहीं दिखते।

स्रोत –  हिंदुस्तान

जब शहर ही ऐसे डूबने लगें

हमारी व्यवस्था जिसको सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखती है , अगर उसी का यह हल है , तो वह कौन सा दरवाजा बचता है , जिसे खटखटाया जाए ?

दिनेश मिश्र, जल विशेषज्ञ

बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह कहा करते थे कि अगर उनका बस चलता, तो वह कोसी नदी को एक-एक महीने के लिए देश के हर प्रांत में भेज दिया करते, तब पूरे देश को पता लगता कि बाढ़ का क्या मतलब होता है। आज अगर वह जीवित होते, तो जरूर प्रसन्न होते कि जो काम वह नहीं कर पाए, वह कुछ अपने आप, और कुछ हमारी गलत नीतियों के कारण हो रहा है। अब कोसी किसी दूसरे नाम से हरेक प्रांत में बह रही है। बिहार की भूमि ज्यादातर मैदानी इलाके की है। सपाट जमीन पर अगर बाढ़ आती है, तो उसका पानी बड़े इलाके पर फैलता है। इससे बाढ़ का स्तर घटता है। उतना ही पानी अगर ऊबड़-खाबड़ जमीन पर फैले, तो उसे कम जमीन मिलेगी और पानी का स्तर बढ़ जाएगा। एक ही मात्रा का पानी ऊबड़-खाबड़ जमीन पर ज्यादा तबाही मचाता है।

बिहार के कुछ हिस्सों को छोड़ दें, तो प्रकृति ने बिहार को पहाड़ नहीं दिए। यहां के विशेषज्ञों ने इस कमी को पूरा करने के लिए तटबंधों, नहरों, सड़कों और रेल लाइनों का अंधाधुंध निर्माण करके पहाड़ों की कमी को पूरा कर दिया है। जाहिर है, पहले जितना ही पानी अब यहां ज्यादा तबाही मचाएगा। पानी ज्यादा बरस गया, तब तो फिर भगवान ही मालिक है। अभी पटना से जो तस्वीरें आई हैं, उसकी मूल वजह यही है। हालांकि यह कहानी अकेले बिहार की नहीं, पूरे देश की है। यही वजह है कि एक जैसी त्रासदी अलग-अलग जगहों पर लोग भिन्न-भिन्न कारणों से भोगते हैं।

पिछले कुछ वर्षों से देश में शहरी बाढ़ का प्रकोप बढ़ा है। पहले कभी-कभी नागपुर, जालंधर, भोपाल, हैदराबाद, कोलकता, जलपाईगुड़ी, जयपुर या दिल्ली का नाम बाढ़ के लिए सुनाई पड़ता था। अब इस सूची में मुंबई, चेन्नई, बेंगलुरु, नासिक, बांसवाड़ा, वाराणसी, मेहसाना, सूरत, त्रिशूर, अलपूझा आदि जैसे असंभव से नाम जुड़ गए हैं। आजादी के बाद हमने ग्रामीण बाढ़ को शहरी बाढ़ बनाने में, और ढाई दिन की बाढ़ को ढाई महीने की बाढ़ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

पटना की बाढ़, जो 1975 में आई थी, एक बड़ी त्रासदी के रूप में सामने आई थी। उसमें मध्य और पश्चिमी पटना पूरी तरह बाढ़ के पानी में डूब गया था। वह एक मानव निर्मित त्रासदी थी, जिसमें सोन व गंगा में एक साथ बाढ़ आ गई थी। घाघरा और गंडक ने भी इसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान किया था। मगर बाढ़ का मुख्य कारण सोन नहर का टूटना था, जिससे पानी पश्चिम से पूरब की तरफ शहर में आया। उस बार राजेंद्र नगर और पटना सिटी का इलाका बच गया था, पर इस बार यह वर्षा का पानी है, जो 27 अगस्त से प्राय: लगातार बरसता रहा और उसकी निकासी न हो पाने से शहर के पूरब वाले इलाके तो डूबे ही, मध्य पटना भी बाढ़ के काम आया। नतीजा यह है कि शहर में घरों से लोगों का निकलना बंद हो गया। यहां तक तो ठीक है, पर दैनिक जरूरतों के सामान मिलने बंद हो गए, लोगों को डॉक्टरी सहायता नहीं मिल रही है, स्कूल-कॉलेज बंद हैं और शौचालयों का पानी घरों में प्रवेश कर रहा है। बहुत से स्थान पर बिजली नहीं है। यहां तक कि वे पंप, जिनसे पानी की निकासी हो सकती थी, या तो पानी में डूबे पड़े हैं या बिजली के अभाव में काम के लायक नहीं बचे। पीने का पानी नहीं मिल पा रहा है। गोया जितनी भी तकलीफें ऐसी परिस्थिति में सोची जा सकती हैं, उन सभी से पटना वासी जूझ रहे हैं। वर्षा के पानी ने बड़े-छोटे, सबको एक प्लेटफॉर्म पर लाकर सामाजिक समरसता का बहुत बड़ा काम किया है! मंत्री से लेकर फकीर तक, सब एक साथ दुआ मांग रहे हैं। नगर प्रशासन खड़ा होकर अपने किए या न किए कामों का तमाशा देख रहा है। जो नीति-नियंता हैं, वे आश्वासन देने में लगे हैं।

पटना नगर निगम का काम है कि वह जल-निकासी की व्यवस्था सुनिश्चित करे। आज से कोई दस-बारह साल पहले एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जब राज्य सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों से तटबंधों द्वारा हुई जल-निकासी के समाधान का वादा किया था। तब इस याचिका में कहा गया था कि जब कानून के आगे सभी लोग बराबर हैं और सरकार ग्रामीण क्षेत्रों से जल-निकासी की व्यवस्था का वादा कर सकती है, तो फिर उसे शहरी क्षेत्र से भी जल-निकासी का इंतजाम करना चाहिए। इस मामले का क्या हुआ, इसकी जानकारी तो नहीं मिली, मगर इससे नागरिकों की परेशानी का कुछ अंदाजा जरूर मिलता है। दुख इस बात का है कि प्रशासन को इससे कोई परेशानी नहीं होती।

सार्वजनिक मंचों से सरकार की तरफ से कभी-कभी ‘फ्लड प्लेन जोनिंग’ का शोशा छोड़ा जाता है कि शहरी जमीन के उपयोग पर नियंत्रण किया जाना चाहिए। बाढ़ नियंत्रण की इस विधा का राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार पहला नियम है कि इस तरह के नुकसान सबसे ज्यादा उस जमीन पर होते हैं, जहां उद्योग-धंधे लगे हुए हैं या जो शहरी क्षेत्र हैं। उसके बाद उस जमीन का नंबर आता है, जिस पर खेती होती है। सबसे कम प्राथमिकता वाली जमीन वह है, जिसका उपयोग मनोरंजन के लिए होता है। जिस जमीन पर कुछ नहीं होता, उसके नुकसान को नुकसान नहीं माना जाना चाहिए।

इसका मतलब तो यही समझ में आता है कि बाढ़ से शहरी क्षेत्रों की सुरक्षा करना व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता का क्षेत्र है। कृषि या ग्रामीण क्षेत्र की सुरक्षा दोयम दरजे की प्राथमिकता है। इस मापदंड के औचित्य पर तो चर्चाएं होती ही रहती हैं, लेकिन हमारी व्यवस्था जिसको सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखती है, अगर उसी का यह हाल है, तो वह कौन सा दरवाजा बचता है, जिसे खटखटाया जाए?

स्रोत –  हिंदुस्तान

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