धीमी लेकिन सधी शुरुआत
केंद्र की महत्त्वाकांक्षी स्वास्थ्य सेवा योजना प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) की शुरुआत को एक वर्ष बीत गया है। इस अवधि में योजना ने कुछ प्रभावित करने वाले आंकड़े हासिल किए हैं। सबसे अहम यह कि इस योजना के तहत करीब 50 लाख लोगों को अस्पतालों में उपचार मिला। यदि देश भर के ऐसे संभावित मामलों को ध्यान में न रखें तो यह आंकड़ा बहुत बड़ा है। यह सच है कि समग्र रूप से देखा जाए तो यह आंकड़ा बहुत ज्यादा नहीं है और यह बात इस ओर इशारा करती है कि इस विषय में जन जागरूकता और पहुंच दोनों में सुधार लाना होगा। यह योजना 33 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों समेत देश भर में लागू है। दिल्ली, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना जैसे कुछ ही विपक्ष शासित राज्य ऐसे हैं जहां यह योजना लागू नहीं है। एक बात यह भी है कि अपेक्षाकृत अमीर राज्यों में दावों की संख्या भी बहुत ज्यादा है। गुजरात में अब तक पीएमजेएवाई योजना के अंतर्गत सबसे अधिक 6.50 लाख दावे हासिल हुए हैं। इसके बाद तमिलनाडु का क्रम आता है जहां ऐसे 4 लाख मामले हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कुल 45 लाख दावों में से 10 लाख केवल इन्हीं दो राज्यों से हैं। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र से भी कुल मिलाकर लगभग 10 लाख दावे प्राप्त हुए। तमाम अन्य अखिल भारतीय योजनाओं की तरह यहां भी बेहतर संसाधन से लैस राज्य बेहतर ढंग से प्रबंधन कर रहे हैं।
धीमा क्रियान्वयन जहां समस्या की वजह है, वहीं इसका एक अर्थ यह भी है कि इसका राजकोषीय प्रभाव अभी पूरी तरह सामने नहीं आया है। यकीनन यह संभव है कि राजकोषीय प्रभाव के कारण ही कमजोर आर्थिक स्थिति वाले राज्यों ने शायद इसका उतना प्रसार नहीं किया जितना करना चाहिए था। आगे चलकर लागत नियंत्रण पर ध्यान देना होगा। पीएमजेएवाई के प्राधिकारियों को पहले लागत कम करने के लिए सक्रियता दिखानी होगी। उदाहरण के लिए औषधि कंपनियों और चिकित्सकीय उपकरण बनाने वालों के साथ मोलभाव करना।
भविष्य में निजी सेवा प्रदाताओं के पैकेज की दर भी विवाद का विषय बन सकती है। सरकार को उम्मीद है कि योजना में पंजीकृत निजी अस्पतालों की तादाद भविष्य में काफी बढ़ेगी। फिलहाल इसमें 9,000 अस्पताल पंजीकृत हैं जो इसमें शामिल शासकीय अस्पतालों की तुलना में कुछ भी नहीं। परंतु जब तक पैकेज की लागत को लेकर सही समझ नहीं बनती चीजें उम्मीद के मुताबिक नहीं घटेंगी। निजी अस्पतालों के विस्तार के साथ व्यापक धोखाधड़ी की आशंका भी बढ़ेगी। योजना के पहले ही वर्ष में छत्तीसगढ़ और झारखंड में अनावश्यक रूप से महिलाओं के गर्भाशय निकालने के मामले सामने आए हैं।
योजना के डेटा आधारित होने के कारण धोखाधड़ी की ऐसी घटनाएं सामने आ जाएंगी लेकिन आखिरकार विवाद का निस्तारण तो पुराने तौर तरीकों से ही करना होगा। हकीकत यह है कि केंद्र सरकार या राज्यों के स्तर पर ऐसे विवादों से निपटने की कोई व्यवस्था अब तक नहीं है। अलग-अलग राज्यों में यह योजना अलग-अलग मॉडल के साथ लागू की गई है लेकिन ऐसे किसी भी मॉडल की सफलता के लिए बुनियादी बात यह है कि राज्य की क्षमताओं में विस्तार हो। फिर चाहे यह नियमन की बात हो, विवाद निस्तारण की या सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पतालों की। कम लागत में सार्वभौमिक स्वास्थ्य योजना बनाना नामुमकिन है। यह योजना अब तक राजकोषीय दबाव वाली साबित नहीं हुई है। अगर भविष्य में इसे सफल होना है तो बड़ी तादाद में संसाधनों की आवश्यकता होगी। तमाम संसाधन गरीब राज्यों को भी देने होंगे ताकि वे इसे सही ढंग से लागू कर सकें।
मानसिक बीमारियों को लेकर बढ़े जागरूकता और उपचार
श्यामल मजूमदार
हाल ही में पुलित्जर पुरस्कार विजेता लेखक और जानेमाने चिकित्सक सिद्धार्थ मुखर्जी ने मानसिक स्वास्थ्य के मसले पर एक अहम बात उठाई। उन्होंने याद दिलाया कि कैसे सन 1950 के दशक में कैंसर को कलंक माना जाता था। उन्होंने कहा कि आज वही स्थिति मानसिक स्वास्थ्य की है। उन्होंने कहा कि उन दिनों कैंसर के मरीजों को अस्पतालों में पीछे की ओर ठूंस दिया जाता था। बाद में जागरूकता बढ़ी और इस बीमारी के साथ जुड़ा कलंक भी मिट गया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि तीन ऐसी शक्तियां हैं जिन्हें मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में मिलकर काम करना होगा। पहली शक्ति है राजनीतिक शक्ति और इसके तहत मानसिक स्वास्थ्य को जन स्वास्थ्य संकट के रूप में चिह्नित करना होगा। राजनीतिक क्षेत्र के सभी लोगों को साथ आकर राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान गठित करने की दिशा में काम करना चाहिए।
दूसरी शक्ति है सामाजिक शक्ति। मानसिक स्वास्थ्य के साथ जुड़े पूर्वग्रह को खत्म करने की दिशा में काम करना चाहिए। कैंसर के मामले में रोज कुशनेर, बेट्टी फोर्ड और हैप्पी रॉकफेलर जैसी महिलाओं ने अहम भूमिका निभाई थी और लोग कैंसर के मरीजों के साथ समानुभूति रखने लगे, उनके इलाज और ठीक होने की राह यहीं से निकली। कोलंबिया विश्वविद्यालय के मेडिकल सेंटर में मेडिसन विभाग के प्रोफेसर मुखर्जी ने कहा कि मानसिक स्वास्थ्य को भी ऐसे ही हिमायत करने वालों की आवश्यकता है।
तीसरी शक्ति जीवविज्ञान से जुड़ी है जिसे जेनेटिक या औषधि क्षेत्र से समझा जा सकता है। इसमें प्रयास करने और विभिन्न प्रकार के शोध करना भी शामिल है। ऐसा करके यह समझ विकसित की जा सकती है कि मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझ रहे लोगों का उत्पीडऩ न हो। वह इन बातों को अपने अनुभव से समझते होंगे क्योंकि उनके दो करीबी रिश्तेदार सीजोफ्रेनिया और बायपोलर डिसऑर्डर से पीडि़त थे। उनका रिश्ते का एक भाई भी सीजोफ्रेनिया से पीडि़त था और उसे भर्ती कराना पड़ा था। मुखर्जी शुरुआत में इस बीमारी की चर्चाओं से दूर रहते थे और आंशिक रूप से इस बीमारी को इसलिए समझना नहीं चाहते थे क्योंकि उनके मन में ढेर सारी आशंकाएं थीं। आखिरकार उन्होंने साहस जुटाया और एक किताब लिखी: द जीन: एन इंटीमेट हिस्ट्री।
उनका यह कहना सही है कि दुनिया के कई अन्य हिस्सों की तरह भारत में भी मानसिक बीमारियों के पीडि़त और उनके परिवार पहले-पहल इन बीमारियों को नकारने की कोशिश करते हैं। उनमें से अधिकांश चिकित्सक को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि उससे बीमारी का पता लगाने में चूक हुई है या उनकी बिगड़ी मनोदशा अपने आप ठीक हो जाएगी। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लोगों में जागरूकता की कमी है और उन्हें नहीं पता कि समय पर पता चल जाने पर इन बीमारियों का पूरा इलाज संभव है। इसकी एक अहम वजह यह है कि देश में मानसिक स्वास्थ्य सलाहकारों की भारी कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार देश में मानसिक बीमारियों के शिकार प्रत्येक एक लाख लोगों पर 0.301 मनोचिकित्सक और 0.047 मनोविज्ञानी हैं। मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वालों की कमी कोई नया मुद्दा नहीं है। सन 1982 में सरकार ने राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम का क्रियान्वयन आरंभ किया था। इसका लक्ष्य था मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल को सामान्य स्वास्थ्य से जोडऩा। परंतु इसमें अपेक्षित तेजी नहीं आई।
वर्ष 2015 तक यानी कार्यक्रम की शुरुआत के तीन दशक बाद तक यह देश के केवल 27 प्रतिशत जिलों में लागू था। हाल ही में संपन्न राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण बताता है कि देश में किसी भी मानसिक अस्वस्थता में उपचार में अंतर की दर 83 फीसदी तक है। यह भी कहा गया कि देश में करीब 15 करोड़ लोगों को उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए देखभाल की आवश्यकता है। देश के कारोबारी जगत को भी इसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। एक चेतावनी भरा तथ्य यह है कि निजी क्षेत्र में काम करने वाले 42.5 फीसदी कर्मचारी अवसाद या तनाव जैसी मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि सन 2012 से 2030 के बीच भारत को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के कारण 1.03 लाख करोड़ डॉलर का आर्थिक नुकसान होगा। गरीब समुदाय मानसिक बीमारी की अनदेखी करते हैं क्योंकि ये बीमारियां अपंग नहीं बनातीं, इन बीमारियों से विरले ही किसी की मौत होती है और अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करने वाले ऐसे परिवारों को मानसिक बीमारियों पर पैसा खर्च करना ठीक नहीं लगता।
वर्ष 2018 में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता फैलाने का काम करने वाले परोपकारी संगठन लाइव लव लाफ फाउंडेशन ने एक अध्ययन किया जिसमें यह पता लगाया गया कि देश के लोग मानसिक स्वास्थ्य के बारे में क्या सोचते हैं। यह अध्ययन देश के आठ शहरों में किया गया। अध्ययन में शामिल लोगों में से 87 फीसदी को मानसिक बीमारियों के बारे में कुछ जानकारी थी, 71 फीसदी ने इससे जुड़े पूर्वग्रहों की बात भी की। एक चौथाई से ज्यादा लोगों ने यह माना वे मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों के साथ तटस्थ रहेंगे। इन दिक्कतों को तत्काल दूर किए जाने की आवश्यकता है। यदि लोग मानसिक बीमारियों को आशंका की दृष्टि से देखते रहेंगे तो मानसिक बीमारियों से पीडि़त लोगों को जरूरी सहायता मिलने में भी मुश्किल आती रहेगी। ऐसे में सरकार के संस्थागत सहयोग की भूमिका बहुत अहम हो जाती है।
संचार की हद
हाल के वर्षों में आम जनजीवन में आधुनिक तकनीकी का दखल बढ़ा है, उससे कई स्तरों पर लोगों का जीवन स्तर बेहतर हुआ है, जीने के तौर-तरीकों में सहजता आई है। निश्चित तौर पर विज्ञान से जुड़ी उपलब्धियों के सकारात्मक उपयोग की मानव जीवन में यही भूमिका होनी चाहिए। लेकिन विडंबना यह है कि आमतौर पर हर देशकाल में मौजूद असामाजिक तत्त्व भी विज्ञान और आधुनिक तकनीकों का ही सहारा लेकर अराजकता फैलाते हैं। पिछले कुछ समय से भारत में वाट्सऐप या फेसबुक जैसे अन्य सोशल मीडिया के मंचों से अफवाहें फैलाने और उसके जरिए लोगों के बीच नफरत और उन्माद पैदा करके हत्या तक की घटनाएं सामने आई । इसके अलावा, सोशल मीडिया आज किसी व्यक्ति के चरित्रहनन, झूठी और आक्रामक बातें करके परेशान करने, फर्जी खबरें फैलाने का भी हथियार बनता जा रहा है। कुछ वेबसाइटों पर आसानी से घातक हथियारों की खरीद-बिक्री के भी मामले देखे गए। मुश्किल यह है कि कई बार इस तरह की खबरें या अफवाह फैला कर हिंसक माहौल पैदा करने वालों का पता नहीं चल पाता और कानूनी कार्रवाई के दौरान असली दोषी आसानी से पकड़ में नहीं आता।
यों, सोशल मीडिया के नुकसान को देखते हुए इस पर लगाम लगाने के हक में आवाजें उठने लगी हैं। लेकिन मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर यह सख्त टिप्पणी की कि तकनीक ने एक खतरनाक रूप अख्तियार कर लिया है और समय आ गया है जब सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने के लिए तय समयसीमा के भीतर दिशानिर्देश बनाए जाएं। इस मसले पर याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के एक जज को यहां तक कहना पड़ गया कि सोच रहा हूं कि अब स्मार्टफोन का इस्तेमाल बंद कर दूं। निश्चित रूप से सोशल मीडिया के भिन्न मंचों की अपनी अहमियत है और वे आज अभिव्यक्ति के एक अहम औजार के रूप में काम कर रहे हैं। लेकिन जिस पैमाने पर इसका बेजा इस्तेमाल बढ़ा है, उसमें इस बात की जरूरत है कि घातक असर पैदा करने वाले संदेशों का प्रसार करने वालों की पहचान करने और उन्हें कानून के कठघरे में खड़ा करने के लिए सख्त नियम-कायदे बनाए जाएं। इस संबंध में अदालत ने केंद्र सरकार से यह भी स्पष्ट करने के लिए कहा है कि क्या वह सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों को आधार से जोड़ने पर विचार कर रही है।
इसमें कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया के मंचों पर ऐसी अनेक उपयोगी जानकारियां और किसी घटना के विभिन्न पहलू से जुड़े तथ्य भी साझा किए जाते हैं, जो किन्हीं वजहों से मुख्यधारा के सूचना-स्रोतों के जरिए सामने नहीं आ पातीं। लेकिन सच यह है कि चूंकि इसके ज्यादातर उपयोगकर्ता अभी इसके सकारात्मक इस्तेमाल को लेकर अपेक्षित स्तर तक संवेदनशील, सजग और जागरूक नहीं हैं, इसलिए कुछ लोगों को अफवाह और झूठी खबरें फैला कर अपनी मंशा पूरी करने में आसानी होती है। यह अपने आप में एक विद्रूप है कि महज अफवाह की आग की वजह से भीड़ में तब्दील होकर लोग किसी ऐसे व्यक्ति की भी पीट-पीट कर जान ले ली जाती है, जिसका उससे कोई ताल्लुक नहीं होता। यह न सिर्फ कानून-व्यवस्था और समाज की सोच को कठघरे में खड़ा करता है, बल्कि इससे उन तकनीकों पर भी विचार करने की जरूरत महसूस होती है, जिनके जरिए आज किसी झूठ को आग की तरह फैलाना आसान हो गया है। जाहिर है, इस पर लगाम के लिए एक ठोस व्यवस्था वक्त की जरूरत है, लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत होगी और सुप्रीम कोर्ट ने भी इससे सरोकार जताया है कि ऐसी पहलकदमी में लोगों की निजता का अधिकार, उनकी प्रतिष्ठा और देश की संप्रभुता का हनन न हो।