आपसी समन्वय से होगा जल संकट का निदान
जल जीवन अभियान की सफलता के लिए पूरे देश की सरकारों को नागरिक समाज के संगठनों के साथ करीबी रिश्ता बनाना होगा। विश्वविद्यालयों और अकादमिक जगत की बेहतरीन प्रतिभाओं को भी अपने साथ जोडऩा होगा।
मिहिर शाह , (लेखक शिव नाडर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एवं योजना आयोग के पूर्व सदस्य हैं)
पानी को ढांचागत क्षेत्र में भारत के सबसे अहम संसाधन के तौर पर समुचित मान्यता नहीं मिली है। इससे भी कम महत्त्व इस बात को दिया जाता है कि पानी के प्रबंधन से जुड़े सुधार सबसे कम हुए हैं। सुधारों का अभाव न केवल करोड़ों लोगों की जिंदगी एवं आजीविका को खतरे में डाल सकता है बल्कि भारत की आर्थिक वृद्धि को भी गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है। आजादी के बाद से ही जल प्रबंधन ऐसी स्थिति का शिकार रहा है कि पानी पीने वाले बाएं हाथ को पता नहीं होता कि सिंचाई वाला दूसरा हाथ क्या कर रहा है और सतही जल के दाएं पैर को नहीं पता होता कि भूमिगत जल का बायां पैर कहां पर है?
ऐसे अनगिनत मौके हैं जहां पेयजल स्रोत इसलिए सूख गया है कि किसानों ने उसका इस्तेमाल अपनी फसलों की सिंचाई के लिए भी शुरू कर दिया। भूमिगत जल का हद से ज्यादा दोहन होने से नदियों के सूखने की रफ्तार बढ़ गई है क्योंकि भूमिगत जल ही मॉनसून खत्म होने के बाद नदियों में प्रवाह बनाए रखता है। नदी प्रवाह और उसकी गुणवत्ता भी जलग्रहण क्षेत्रों के नष्ट होने से प्रभावित हुई है। बाढ़ आने की आवृत्ति भी बढ़ गई है क्योंकि अतिरिक्त जल की निकासी के प्राकृतिक इंतजाम या तो अवरुद्ध कर दिए गए हैं या अतिक्रमण का शिकार हो गए हैं।
पानी से संबंधित हरेक चुनौती की जड़ें उस तरीके से जुड़ी हैं जिसके आधार पर देश में मौजूद जलभंडारों का विभाजन किया गया है। तमाम क्षेत्रों के बीच कोई सार्थक संवाद नहीं होने का भी इस पर असर पड़ा है। ये हालात पैदा होने की वजह यह है कि हमने पानी के बहुआयामी चरित्र को ठीक से नहीं समझा है। सतही जल के प्रबंधन का दायित्व केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) के पास है जबकि केंद्रीय भू-जल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) भूमिगत जल की निगरानी करता है। हरेक राज्य में भी इनके समकक्ष संगठन मौजूद हैं। इन संगठनों के गठन के बाद से ही अब तक इनमें कोई सुधार नहीं हुआ है। वे काफी हद तक स्वतंत्र तरीके से काम करते रहे हैं और अक्सर एक-दूसरे के खिलाफ भी खड़े हो जाते हैं।
त्रासद स्थिति है कि भारत में पानी का दो-तिहाई से भी अधिक पानी भूजल होने के बावजूद इसकी बढ़ती अहमियत के उलट केंद्र एवं राज्यों के स्तर पर भूजल विभाग कमजोर होते गए हैं। इससे भी बुरा यह है कि सतही जल मुख्य रूप से सिविल इंजीनियरों के भरोसे है जबकि भूजल की देखरेख करने वाले जल-भूविज्ञानी इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज करते हैं कि पानी की बेहतर साज-संभाल के लिए विभिन्न विषयों के पेशेवरों की जरूरत है। अपनी नदियों में नई जान फूंकने की भारत की प्रतिबद्धता और जन समर्थन के बावजूद हमारे पास देश में कहीं भी जल प्रबंधन से जुड़े किसी भी संगठन में कोई नदी पारिस्थितिकी-विशेषज्ञ या पारिस्थितिकी अर्थशास्त्री नहीं रहा है। पानी की अधिक जरूरत वाली फसलों चावल, गेहूं और गन्ना के प्रभुत्व वाले कृषि क्षेत्र में पानी का सबसे ज्यादा उपभोग होता है लेकिन जल प्रबंधन कर रही अफसरशाही में एक भी कृषि-विज्ञानी नहीं है। पानी की बेहतर देखभाल वहीं हो पाई है जहां स्थानीय समुदाय ने भी खुलकर साथ दिया है, चाहे वह भूमिगत जल का प्रबंधन हो या कमान एरिया विकास का मामला हो, लेकिन जल विभागों ने कभी भी किसी सामाजिक संगठनकर्ता को जगह नहीं दी है। सरकारों ने बाहरी सरकारों के साथ संस्थागत साझेदारी भी नहीं बनाई है जिससे उसे जरूरी बौद्धिक एवं सामाजिक पूंजी- नागरिक समाज, बुद्धिजीवी या कंपनी जगत का साथ मिल सकता था।
भारत सरकार की तरफ से सीडब्ल्यूसी एवं सीजीडब्ल्यूबी के पुनर्गठन के लिए बनी समिति ने 2015-16 में जल प्रबंधन के लिए एकदम नया ढांचा बनाने का सुझाव दिया था। इसकी अध्यक्षता करते हुए मैंने सीडब्ल्यूसी एवं सीजीडब्ल्यूबी के विलय का प्रस्ताव रखते हुए एकदम नया राष्ट्रीय जल आयोग (एनडब्ल्यूसी) बनाने की बात कही थी। उस रिपोर्ट को सरकार के भीतर एवं बाहर खूब सराहा गया। जल संसाधन मंत्रालय, नीति आयोग एवं प्रधानमंत्री कार्यालय ने भी इसकी वकालत की थी। भारत में सामाजिक विज्ञान के अग्रणी जर्नल इकनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली ने इस रिपोर्ट के तमाम पहलुओं को समर्पित एक समूचा अंक ही निकाला था। हालांकि इस रिपोर्ट पर सरकार की तरफ से ठोस कार्रवाई का अब भी इंतजार है।
जलशक्ति मंत्रालय का गठन पहला अहम कदम है। सिंचाई एवं पेयजल विभागों को एक मंत्रालय में ला दिया गया है। अब दोनों विभागों को एक दूसरे से करीबी तालमेल बिठाते हुए काम करना होगा। असली परीक्षा उस समय होगी जब महत्त्वाकांक्षी जल जीवन अभियान लागू होना शुरू होगा। देशवासियों को साफ एवं सुरक्षित पेयजल मुहैया कराने का अकेला तरीका यही है कि हम जलस्रोत को मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों स्तरों पर टिकाऊ बनाए रखें। इसके लिए जरूरी पानी का बड़ा हिस्सा जलभंडारों से पहुंचाया जाएगा जिनका इस्तेमाल सिंचाई के लिए भी होता है। सिंचाई एवं पेयजल विभागों के साथ मिलकर काम किए बगैर जलभंडार को टिकाऊ नहीं बनाए रखा जा सकता है। इसके अलावा भागीदारी-आधारित प्रबंधन के बगैर इन जलभंडारों में भूमिगत जल खत्म होने लगेगा जिससे हालात बिगड़ते जाएंगे। इसके लिए देश भर में तेजी से गायब हो रहे भूजल विभागों को सशक्त करने के साथ भूजल के प्रबंधन में प्राथमिक हितधारकों को करीब लाना होगा।
अगर जल जीवन अभियान को सफल होना है तो पूरे देश की सरकारों को नागरिक समाज के संगठनों के साथ करीबी रिश्ता बनाना होगा। इसके अलावा विश्वविद्यालयों एवं अकादमिक जगत की बेहतरीन प्रतिभाओं को भी अपने साथ जोडऩा होगा। जल भंडारों का मानचित्रण एवं प्रबंधन का विशद कार्य इस अभियान की कामयाबी के लिए एक पूर्व-शर्त है और इसे अकेले सरकार ही अंजाम नहीं दे सकती है। सबसे बड़ी बात, किसानों को इस अभियान में केंद्रीय भूमिका देनी होगी। एक बार वे अपने खेतों के नीचे मौजूद पानी के स्वभाव को समझ लेंगें तो वे अपनी फसलों के चयन एवं पानी के इस्तेमाल में कहीं बेहतर फैसला कर पाएंगे। लेकिन जल प्रबंधन में सबसे अहम बदलाव भारत सरकार की फसल खरीद नीतियों में करने की होगी। किसानों को निम्न जल उपयोग वाली फसलों का एक स्थिर बाजार नहीं मुहैया कराने तक जल जीवन अभियान के तहत चिह्नित जलभंडारों का अत्यधिक दोहन होता रहेगा और भारत के लोगों के लिए जल सुरक्षा एक सपना ही बना रहेगा। इसका मतलब है कि कृषि, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण और महिला एवं बाल विकास मंत्रालयों को भी जल शक्ति मंत्रालय के साथ करीबी तालमेल बिठाने की जरूरत होगी। केंद्र एवं राज्य दोनों स्तरों पर यह काम करना होगा।
स्रोत – बिजनेस स्टैंडर्ड
व्हिसलब्लोअर से जुड़ी घटनाओं का हो अनुभवजनित अध्ययन
सोमशेखर सुंदरेशन
एक बार फिर एक सूचीबद्घ कंपनी के खिलाफ एक व्हिसलब्लोअर ने शिकायत की है। एक बार फिर हालात को संभालने की घबराहट भरी कवायद नजर आएगी। हो सकता है इससे कुछ हासिल हो या न भी हो। बहरहाल नीति निर्माताओं को एक आवश्यकता पर काम करना होगा: व्हिसलब्लोअर नीति को लेकर एक ऐसे कानूनी ढांचे का निर्माण जो इस अवधारणा के तमाम पहलुओं से निपटता हो।
व्हिसलब्लोअर की ऐसी शिकायतों से निपटने के तमाम कानून और प्रक्रियाएं स्वत: स्फूर्त ढंग से विकसित हुई हैं और इन्हें कानूनी सहायता प्राप्त नहीं है। कंपनी कानून और प्रतिभूति नियमन के लिए निकायों के भीतर एक व्हिसलब्लोअर नीति की आवश्यकता है। इसके बावजूद व्हिसलब्लोअर का काम और इनका प्रबंधन दोनों अत्यंत नाजुक क्षेत्र हैं। अगर गलत तरीके से प्रबंधन किया गया तो यह उन संस्थानों में लोगों को शिकार बनाने का जरिया बन सकता है जहां जी हुजूरी करने वालों का बोलबाला है। या फिर इसके चलते पूरे संगठन तंत्र को शिकार बनाया जा सकता है।
एक वक्त था जब भारत सरकार की स्पष्ट नीति थी जिसके तहत गुमनाम या छद्म शिकायतों की अनदेखी की जाती थी। जब तक शिकायत किसी व्यक्ति द्वारा नहीं की जाती थी तब तक जांच नहीं होती थी। सार्वजनिक सेवा में काम के हर घंटे के दौरान ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं जो किसी को निराश करते हैं। ऐसे में एक संस्थान तब तक नहीं चल सकता है जब तक कि ऐसे निर्णयों के कारण हुई निराशा को लेकर संरक्षण की व्यवस्था न हो। इसके बावजूद गुमनाम शिकायतों या पत्रों को आधार बनाकर उठाए जाने वाले गंभीर कदमों की कोई कमी नहीं। अब इसमें छद्म शिकायतें भी शामिल हो गई हैं। शिकायत की विषयवस्तु जितनी गंभीर होती है, गुमनाम या छद्म होने के आधार पर उस शिकायत की अनदेखी करना उतना ही मुश्किल होता है।
कॉर्पोरेट बोर्ड में इस तरह की शिकायत और अधिक देखने को मिलती हैं। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि किसी भी स्रोत से आ रहा प्रकाश रौशनी दे सकता है। ऐसे में जब शिकायत गुमनाम या छद्म होती है तो निदेशक मंडल को सीईओ के व्यक्तित्व और संस्थान में काम के माहौल पर ध्यान देना चाहिए। सीईओ जितना मजबूत (पढ़ें स्वेच्छाचारी) होगा, शिकायतकर्ता के लिए अपनी पहचान छिपाना उतना ही आवश्यक होगा। सीईओ जितना समावेशी और समायोजन करने वाला होगा और वह कार्यस्थल पर विविधता का जितना हामी हो, निदेशक मंडल को गुमनाम या छद्म शिकायतों को लेकर उतनी ही सख्ती बरतनी चाहिए। हालांकि यह कहना आसान है करना मुश्किल।
किसी शिकायत की जांच में एक भावना बहुत गहरे तक शामिल रहती है। वह है यह जानने की इच्छा कि आखिर शिकायतकर्ता कौन है। नेतृत्व जितना सख्त होगा, व्हिसलब्लोअर की सुरक्षा को उतना ही जोखिम होगा। व्हिसलब्लोअर का संरक्षण और उसे लेकर संगठन के रवैये से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि संगठन की प्रकृति क्या है। जो एक व्यक्ति के लिए सुधारक है वह दूसरे के लिए धोखेबाज हो सकता है।
अमेरिका की कारोबारी जगत से जुड़ी नीतियों ने दुनिया को सोचने पर मजबूर किया। उसने व्हिसलब्लोअर की चिंताओं का इस्तेमाल कॉर्पोरेट जगत के भ्रष्टाचार से जुड़ी चिंताओं से निपटने में किया लेकिन जब मामला सरकार की गड़बडिय़ों से जुड़े मामले उजागर करने का होता है तो अमेरिका का अधिनायकवादी स्वरूप सामने आता है। एडवर्ड स्नोडेन तथा उनके जैसे अनेक लोगों की दुर्दशा इसका उदाहरण है। समान सोच वाले ऐसे तमाम लोग जेलों में कैद हैं। अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति अपने कार्यालय में व्हिसलब्लोअर की भरोसेमंद शिकायतों की जांच न होने देने के हिमायती हैं।
मौजूदा समय में जिन कंपनियों का सरकार से कोई लेनादेना नहीं है उन्हें भी व्हिसल ब्लोअर की शिकायतों से निपटना है। बल्कि उन्हें एक ऐसा ढांचा तैयार करना चाहिए जहां शिकायतकर्ता बिना किसी भय या अपनी पहचान की आशंका के बिना आकर शिकायत कर सके। अपारदर्शी तरीके से की गई शिकायतों को गंभीरता से न लेने से आगे बढ़ते हुए बाजार अब इसे अवैध मानने तक आ पहुंचा है। अब मांग यह की जा रही है व्हिसल ब्लोअर की पहचान सुनिश्चित हो।
अब वक्त आ चुका है कि इस बात का व्यापक अनुभवजनित अध्ययन किया जाए कि देश में व्हिसलब्लोअर नीतियों का किस प्रकार इस्तेमाल और दुरुपयोग हो रहा है तथा कॉर्पोरेट जगत इनसे संगठनात्मक रूप से कैसे निपट रहा है। व्हिसलब्लोअर की शिकायतों से निपटने के लिए आदर्श तरीका अपनाने और इन शिकायतों से निपटने के संगठनों के तरीकों पर कानूनी दृष्टि को देखना इस विषय में कानून प्रवर्तन की दिशा में काफी अहम हो सकता है। आज निदेशक मंडलों पर भी आरोप लगते हैं कि वे इन शिकायतों से सही ढंग से नहीं निपटते। कहा जाता है कि वे या तो सतही शिकायतों को अत्यधिक गंभीरता से ले लेते हैं या फिर अहम शिकायतों को गंभीरता से नहीं लेते। इनसे निपटने को लेकर कानून में जितनी अपारदर्शिता रहेगी, देश में कारोबारी सुगमता की स्थिति भी उतनी ही खराब रहेगी।
स्रोत – बिजनेस स्टैंडर्ड
स्कूलों में 8वीं कक्षा तक मातृभाषा में होगी पढ़ाई
यह तथ्य जगजाहिर है कि छोटे बच्चे अपनी मातृभाषा में कोई भी चीज सबसे तेजी से सीखते और समझते हैं। इसलिए जहां तक संभव हो कम से कम आठवीं तक की शिक्षा छात्र-छात्राओं को उनकी मातृभाषा में ही दी जाए। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से प्रस्तावित नई शिक्षा नीति के संशोधित ड्राफ्ट में ये सिफारिश की गई है।
इसमें यह भी कहा गया है कि विज्ञान विषय को छठी कक्षा से मातृभाषा और अंग्रेजी दोनों में ही पढ़ाया जाएगा। नई शिक्षा नीति के संशोधित ड्राफ्ट में कहा गया है कि देश की सभी स्थानीय भाषाओं में सभी विषयों की उच्च गुणवत्ता वाली पुस्तकें उपलब्ध कराई जाएंगी। यदि किसी भाषा में सभी विषयों की पुस्तक उपलब्ध नहीं कराई जा सकीं तो कम से कम कक्षा में पढ़ाने का माध्यम छात्र-छात्राओं की उनकी मातृभाषा में होगा।
रिपोर्ट में कहा गया है कि शिक्षकों को दो भाषाओं में पढ़ाने के लिए प्रेरित किया जाएगा, ताकि यदि किसी छात्र की मातृभाषा अलग है तो उसे पढ़ने में दिक्कत न हो। इसमें आगे कहा गया है कि विज्ञान, मनोविज्ञान और बिजनेस स्टडी जैसे अंतरराष्ट्रीय विषय छात्रों को छठीं कक्षा से ही मातृभाषा के साथ अंग्रेजी में पढ़ाना शुरू कर दिया जाएगा। इससे 9वीं कक्षा में आते-आते छात्र इन विषयों को अंग्रेजी और अपनी मातृभाषा दोनों में बोल सकेंगे।
त्रिभाषा फॉर्मूल लागू पर किसी राज्य पर नहीं थोपा जाएगा
रिपोर्ट में कहा गया है कि त्रिभाषा फॉर्मूल को जारी रखा जाएगा। लेकिन इसे लागू करने में संविधान के प्रावधानों,लोगों की आकांक्षाओं और क्षेत्र को ध्यान में रखा जाएगा। किसी भी राज्य पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी। रिपोर्ट में प्रस्ताव किया गया है कि छठीं से आठवीं कक्षा के बीच छात्र ‘भारत की भाषाओं’ पर एक एक्टिविटी में भाग लेंगे। इसमें वे संस्कृत समेत भारत की तमाम भाषाओं के बारे में जानेंगे।
स्रोत – हिंदुस्तान
नतीजे और संकेत जनसत्ता
हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजे अनुमान के विपरीत आए हैं। भाजपा को पूरा विश्वास था और मतदान पश्चात के सर्वेक्षण भी बता रहे थे कि दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार बनेगी। इसकी कुछ ठोस वजहें भी थीं। दोनों जगह कोई सत्ता विरोधी लहर नजर नहीं आ रही थी। महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस और हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर सरकार के कामकाज कमोबेश संतोषजनक ही नजर आ रहे थे। इसलिए दोनों जगहों पर भाजपा अपनी सीटों में इजाफे की उम्मीद कर रही थी। हरियाणा में तो उसने नब्बे में से पचहत्तर से ऊपर सीटें जीतने का दावा किया था। पर वहां वह बहुमत के करीब पहुंचने से भी रह गई। पिछली बार की तुलना में उसने अपनी करीब आठ सीटें गंवा दी। वहां नई बनी दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी ने अपनी जोरदारी पारी की शुरुआत की। वह दस सीटें अपने खाते में ले गई। जबकि इंडियन नेशनल लोकदल का एक तरह से अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। इन सबके बीच उम्मीद के उलट दोनों राज्यों में कांग्रेस की हैसियत बढ़ी दर्ज हुई। ऐसे वक्त में जब कांग्रेस के भीतर कलह है, बहुत सारे नेता छोड़ कर जा चुके हैं या फिर नाराज चल रहे हैं, दोनों राज्यों में वह बहुत ढीले-ढाले तरीके से मैदान में उतरी थी, तब उसका भाजपा को टक्कर देना और चौंकाने वाले नतीजों तक पहुंच जाना मतदाता के मन की कुछ और ही थाह देता है।
हालांकि विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे अधिक प्रभावी होते हैं, पर राष्ट्रीय मुद्दे भी कहीं न कहीं उनके साथ नत्थी होते हैं। भारतीय जनता पार्टी पिछले पांच सालों से विजय रथ पर सवार है। प्रधानमंत्री पर लोगों का भरोसा कमजोर नहीं हुआ है। इसलिए जिन राज्यों में पहले से भाजपा की सरकारें रही हैं, वहां माना जाता रहा है कि यह भरोसा उसे विजय दिलाएगा। मगर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में यह प्रभाव काम नहीं आया। फिर लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अप्रत्याशित विजय हासिल की, तो पार्टी के हौसले स्वाभाविक रूप से बढ़े। इसके अलावा मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस लगातार कमजोर होती दिखी। लोकसभा नतीजों के बाद उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष ने इस्तीफा दे दिया, फिर लंबे समय तक उन्हें मनाने और नए अध्यक्ष पर विचार की प्रक्रिया चलती रही। अंतत: सोनिया गांधी को ही तदर्थ जिम्मेदारी सौंप दी गई। इससे पार्टी में कलह उभरा। हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के कई कद्दावर नेता अलग हो गए। वे अलग-अलग मंचों से अपनी ताकत प्रदर्शित करने लगे। उससे भी भाजपा की स्थिति मजबूत लगने लगी थी। पर मतदाता ने उसकी तरफ एक बार फिर रुख कर लिया।
महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा को हुए नुकसान की कुछ वजहें साफ हैं। एक तो यह कि उसने स्थानीय मुद्दों के बजाय कश्मीर, राष्ट्रवाद, पाकिस्तान, सुरक्षा आदि मुद्दे उठाए। स्थानीय मुद्दों की तरफ ध्यान नहीं दिया गया, जबकि विपक्षी दल उसे महंगाई, खराब अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, किसानों की बदहाली आदि मुद्दों पर घेर रहे थे। इसके अलावा, भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं में जीत का अतिरिक्त आत्मविश्वास नजर आने लगा था, जिसके चलते कई नेता ईवीएम और जीत आदि से जुड़े बयान देते देखे गए। महाराष्ट्र में बाढ़ के दौरान पैदा अव्यवस्था से निपटने में जिस कदर फडणवीस सरकार विफल देखी गई और आरे कॉलोनी के वन क्षेत्र को काटा गया, उससे भी लोगों में रोष था। किसानों की स्थिति सुधारने पर भी प्रदेश सरकार अपेक्षित ध्यान नहीं दे पाई। इसके अलावा उपचुनावों के परिणाम भी भाजपा के लिए बहुत उत्साहजनक नहीं हैं। ऐसे में ताजा नतीजे भाजपा को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करने की तरफ संकेत करते हैं।
स्रोत – जनसत्ता